Book Title: Anusandhan 2008 06 SrNo 44
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसन्धान ४४
कह एयं मणुयत्तं कह एसो तुज्झ जीव ! जिणधम्मो । हद्धी पमायजडिओ मा वच्चह घोरसंसारं ॥ ५ ॥ का माया को य पिया, को पुत्तो पणइणीवि का तुज्झ? । जह विज्जुलाझुलुक्को दीसइ एयं तहा सयलं ॥ ६ ॥ किं गेहं किं दविणं देहं पि हु तुज्झ जीव ! किं एवं ? । नडपेच्छणयसरूवं नाउं तं चयसु मयमोहं ॥ ७ ॥ एक्को चिय जीव ! तुमं भमिओ अइदुक्खिओ अणाहो य । नो तुज्झ परित्ताणं विहियं केणइ मणागपि ॥ ८ ॥ निसुणंतो तं धम्म हुंकारं देसि वायरहिओव्व । थेवं पि जं न कज्जे वट्टसि तं अहह मूढत्तं ॥ ९ ॥ पेच्छसि तुच्छे भोए नो पाससि नरयगरुयदुक्खाई। जीव ! बिरालोव्व तुमं पेच्छसि दुद्धं न उण लढेि ।। १० ।। अन्नभवे विहुरमणो कंपंतो दुस्सहाए वियणाए । हा ! हा !! करुणसरेणं पच्छा बहुयं विसूरिहसि ।। ११ ।। सव्वोवि तुहुवएसो दिनो तत्तंमि जाइ जह बिंदू । पेरिज्जतो सययं न हु चेयसि कीस अप्पाणं ? ।। १२ ॥ दूरे सहणं दंसणमच्छउ नरउब्भवाए वियणाए । सुव्वंतीए विजिए उक्कंपो जायए गरुओ ॥ १३ ॥ सावि तए सहियव्वा कहं तए हियय ! कहसु सब्भावं । कंटे णवि परिभग्गे जं कंदंतो तहा हिट्ठो ॥ १४ ॥ जइ वियरसि परपीडं नाऊण वि दुक्खकारणं विउलं । तं जाणिय पाणहरं हा ! परिभुंजसि विसं मूढ ! ॥ १५ ॥ इह काऊणं पावं संपत्तो घोरनरयठाणेसु । नो दीणं विलवंतो छुट्टसि चोरो इव सलोद्दो ॥ १६ ॥ भणसि मुहेणं सव्वं नत्तं अइसुंदरं तुमं जीव ! । जं न कुणसिकाएणं तं मन्ने गरुयकम्मोसि ॥ १७ ॥ जाव य इंदियगामो वट्टइ आणाइ तुज्झ रे जीव ! । ता सुमरसु अप्पाणं मा तप्पसु अहव पच्छाओ ।। १८ ।।
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