Book Title: Anusandhan 2008 06 SrNo 44
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
जून २००८
जिणवयणभाविएण सत्थत्थसमग्गपारगेणं पि । भवभमणभीरुगेणं सुहसंसरिंग पवन्नेणं ॥ ३६ ।। अवगयपरमत्थेणं निच्चं सुहझाणज्झायगेण मए । तहवि गयं चिय अपहे मणमेयं ही ! कहं दिटुं ? ।। ३७ ।। जह लद्धलक्खचोरो हरमाणो नेव नज्जए दविणं । तहवि गयं चिय दीसइ मणंपि एवं, कहं होमि? ॥ ३८ ॥ हुं दुक्करेवि मग्गे एगो एत्थेव अस्थि हु उवाओ। खणमेत्तं पि न दिज्जइ जइ मणपसरो पमायस्स ॥ ३९ ॥ परमत्थं जाणंतो दंसियमग्गे सयावि वढ्तो । जइ खलइ कोइ कहमवि सरणं भवियव्वया तत्थ ।। ४० ॥ केत्तियमेत्तं बहुसो मणनिग्गहकारणं पयंपेमि । धन्नाण एत्तियं पि हु जायइ चिंतामणिसमाणं ।। ४१ ॥ गुरुकम्माणं एयं पुणरवि जाणावियंपि किर कहवि । पत्तंपि वरनिहाणं वियलियपुन्नस्स व न ठाइ ॥ ४२ ॥ पइदियहं जइ एवं ज्झाएमी तुह जिणिंद ! आणाए । तो जयथुयपाए पउमनाहं बीहेमि भवरन्ने ।। ४३ ।। सद्धासंवेमजुओ मणनिग्गहभावणं इमं जीवो। झायंतो निव्विग्घं कल्लाणपरंपरं लहइ ।। ४४ ।।
॥ छ । मनोनिग्रहभावनाकुलकं समाप्तं ।।
OG
(१७) गुरुभक्तिमहिमा कुलक नमिउं गुरु-पय-पउमं धम्माइरियस्स निययसीसेहिं । जइ बहुमाणो जुज्जइ काउमहं तह पयंपेमि ॥ १ ॥ गुरुणो नाणाइजुया महणिज्जा सयलभुवणमज्झमि । किं पुण नियसीसाणं आसन्नुवयारहेऊहिं ॥ २ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126