Book Title: Anusandhan 2008 06 SrNo 44
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ जून २००८ थेव-मणदुक्कियस्सवि जाणंतो अइवदारुणविवागं । जइ कहवि खंचिय मणं धारेमी एगवत्थुमि ।। ८ ॥ पाणिपुडनिविडपीडियरसं व पेच्छामि तहवि झत्ति गयं । अहह उवायं पुणरवि केरिसमन्नं अणुसरामि ? ॥ ९ ॥ भयमत्तं पिव हत्थि धम्मारामं पुणोवि भंजंतं ।। दटुं विवेयमिठो सुझाणखंभं समल्लियइ ॥ १० ।। उल्लसिओ आणंदो खगमेगं जाव ताव चिंतेमि। ता सिद्धमंतिओ इव दीसइ अन्नत्थ किं करिमो? ॥ ११ ॥ मणमक्कडेण सुइरं मह देहं तावियं अहो बाढं । ता कह निग्गहिऊणं होहामि अहं सुही एत्थ ?॥ १२ ॥ सिद्धिपुरीए सिद्धी जाव फुडं तुज्झ होइ रे जीव ! । ता मणराएण समं मा विग्गह-उवरमं कुणसु ॥ १३ ।। अह विग्गहंमि चत्ते पत्ते निक्कंटगम्मि रज्जमि । एस तुहं तं काही सयावि जह दुक्खिओ होसि ॥ १४ ॥ जह इदंजालिएणं काउं मुट्ठीइ दंसियं वत्थू । धरिओ जणेण मुट्ठी दिटुं नटुं तयं वत्थू ।। १५।। एवं चिय मणवत्थू संजममुट्ठीइ धारियं कहवि । सुहभावलोयधरिओ ही नटुं हीणपुनस्स ॥ १६ ।। न हु अत्थि किंपि नूणं चंचलमन्नं मणाउ भुवणंमि । तं पुण उवमामेत्तं पवणपडागाइ जं भणियं ।। १७ ॥ साहूण सावगाण य धम्मे जो कोइ वित्थरो भणिओ। सो मणनिग्गहसारो जं फलसिद्धी तओ भणिया ॥ १८ ॥ जत्थ मणो तरलिज्जइ सो संगो दूरओवि चइयव्वो। बहुरयणसणाहेणं दुज्जयचोराण जह पंथो ।। १९ ॥ जिय ! अज्ज अह कल्ले परलोए तुह पयाणयं होही । दीहरसंसारकए निरंकुसं कह मणं कुणसि? ॥ २० ॥ किमहं करेमि? कस्स व कहेमि ? चिंतेमि अहव किं तत्तं? । जेण मणो पसरंतं धारेमी मत्तहत्थिव्व ।। २१ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126