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अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012
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आदि की पूजा लिखी हैं। इसी तरह सुनील सागर आचार्य ने सन्मतिसागर पूजा और मैंने स्वयं आर्यिका ज्ञानमती, आ. शान्तिसागर, वर्धमान सागर, वीर सागर, अभिनंदन सागर आदि की पूजाएँ लिखी हैं। आज २१वीं शताब्दी में यह क्रम विद्यमान है।
यहाँ एक बात स्पष्ट है कि दशलक्षण पूजा से संबन्धित दश पूजाएं प्राकृत में हैं। प्राकृत है सुकुमार उसमें पूजा अतिसुकुमार तो होगी ही, परन्तु उन्हें जो पढ़ेगा वह श्रावक अपने कर्मो का क्षय करेगा।
संदर्भ :
१. जैन पूजा काव्य : एक चिंतन- लेखक- डॉ. दयाचंद साहित्याचार्य
२.
वृहत् सं. शब्द कोष - २ / ६६२
-डॉ. उदयचन्द्र जैन
पिऊकुंज, अरविंद नगर, उदयपुर (राजस्थान)
विषयासक्त पुरुष
विषयासक्त चित्तानां गुणः को वा न नश्यति ।
न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्य न सत्यवाक् । १०- १॥ ॥क्षत्रचूड़ामणि ।। विषयभोग में आसक्त, किस गुण को नष्ट नहीं करता (सर्वेगुणाः नश्यन्ति) उसका पाण्डित्य, मनुष्यता, कुलीनता और सत्यवचन नहीं ठहरतें। पराराधन जाद दैन्यात्, पैशून्यात् परिवादतः । पराभवात्किमन्येभ्यो, न विभेति हि कामुकः । ११-१।। (क्षयचूड़ामणि)
कामुक व्यक्ति दूसरे की खुशामद से उत्पन्न- दीनता, चुगली, वदनामी और अपमान की परवाह नहीं करता।
पाकं त्यागं विवेकं च वैभवं मानितामपि ।
कार्माताः खलु मुन्ति, किमन्यैः स्वञ्च जीवितम् ॥ १२ ॥
विषयों से पीड़ित जन भोजन को दान को कर्त्तव्याकर्त्तव्य विचार को, संपत्ति को और पूज्यता को भी निश्चय से छोड़ देते हैं, और तो क्या अपने जीवन को भी त्याग देते हैं।
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