Book Title: Anekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देइयं चेइयं पज्जुवसामि मत्थेण वंदामि' में देव और चैत्य दोनों की उपासना आदि के साथ तीन प्रदक्षिणा, तीन आवर्त आदि पूर्वक वंदना, नमन, सत्कार, सम्मान उन्हीं को दिया गया है जो देव/आप्त हैं और आप्त के चैत्य हैं। जब प्रतिक्रमण या सामायिक आदि के पाठ को पढ़ते हैं तब चतुर्विशति स्तव को पढ़ते हैं। लोयस्स उज्जोयगरे धम्मतित्थ-यरे जिणे। अरहते कित्तियहसं चउवीसं पि केवली।। उसहमजिदं च ददे संभवमहिणंदणं च सुमदिं च। इत्यादि। धवला में अनेकानेक मंत्र हैंजिनमें णमो जिणाणं, णमो बोहियाणं, णमो सव्वसाहूणं आदि लगभग ८० से अधिक गुणों के स्तवन पर प्रकाश डालते हैं। श्रावक धर्म और पूजा - आचार्य पुष्पदंत भूतबलि जीवट्ठाण धवला टीका में यह स्पष्ट किया है कि जो श्रावक जिनबिंब के दर्शन करता है, उनकी तीन कारणों से सम्यक् पूजा, उपासना आदि करता है वह जाति स्मरण पूर्वक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। तीहि कारणेहि पढम-सम्ममुप्पदेदि केई। जाईस्सरा केइ सोहूण केइ जिणबिबं दठूणं।। (धवला) जिणबिंबदसणेण णिधत्त-किचादिस्स। विमिच्छत्तादि-कम्मः कलावस्स खयदंसणादो।। (धवला) जिनबिंब के दर्शन से निधत्त और निकाचित की प्राप्ति और मिथ्यात्व आदि कर्म कलाप की समाप्ति होती है। नित्य कर्म - श्रावक के नित्य आवश्यक कर्म - देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इसे सामायिक पाठ में पढ़ते हैं और सभी जानते हैं। देव-पूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय - संयमश्तपः। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।। जयधवला सूत्र ८२ में श्रावक के चार आवश्यक धर्म कहे हैं तं जाधा दाणं पूजा सीलमुववासो, चेदि चदुव्विहो सावयधम्मो।। दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकधर्म हैं। रयणसार में दान और पूजा ये दो प्रमुख श्रावक धर्म हैं उनके बिना श्रावक नहीं होता। दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे, ण सावया ते ण विणा। श्रावक के नित्य, नैमित्तिक कर्मों जिनबिंब दर्शन, अभिषेक, पूजन, प्रक्षालन आदि का विशेष महत्त्व है। आचार्य कुंदकुंद ने अष्टद्रव्य के माहात्म्य को प्रतिपादित करते हुए यह भी

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