Book Title: Anekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04 Author(s): Padmachandra Shastri Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 9
________________ अनेकान्त/८ सेवक होने के कारण मुझे भी सम्पादकद्वय के साथ आत्मीयता है। श्री १०८ मनि के युगो पहिले से ये उपदेशक-विद्यालय के स्नातक थे। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार सघ को छोडकर ये समय-प्रमुख श्री १०८ के लोकसग्रही रूप से आकृष्ट हुए थे। प० बलभद्र जी ने आपके सान्निध्य मे अज्जमखु होना स्वीकार किया और प० पद्मचन्द नागहत्थि नही हो सके। सम्पादक श्री ने जो सूत्र निश्चित किये उनकी चर्चा तत्कालीन जैन साहित्य के लोकमान्य प्राकृतज्ञो तथा श्रुत-स्थविरो के साथ करने या कराने की कुन्दकुन्द-भारती ने क्यो उपेक्षा की? और स्व० डा० हीरालाल जी के समान उनके द्वारा, सर्वप्रथम सहयोगी स्व० प० हीरालाल जी तदनन्तर फूलचन्द जी एव बालचन्द जी से गहन विमर्श करके भी अपने सम्पादन-सूत्रो का प्रारूप तत्कालीन विज्ञ (दिगम्बर) जगत को भेजा था। उत्तरकाल मे भी यह काम सघ कराता रहा है। अपनी अन्तिम सासतक मुख्यरूप से मूल-आगमो के सम्पादक एव भारती-(हिन्दी)-भाषान्तरकार स्व० फलचन्द्र जी की प्रेसकापी भादि जैन सघ स्वयबद्ध मख्तार वन्धओ को भिजवाता था। आश्चर्य होता है कि मूल-आगमो के टीका-(परिकम्म) टीकाकार, प्रागार्य भारतीय-सस्कृति को सस्कृत-पूर्वयुगीन भाषाओ मे ही चित्रित करके वैदिक-सस्कृति को भी त्याग, सन्यास, मोक्ष, अध्यात्मवाद, लोक-परलोक, दर्शन तथा गृहस्थ वानप्रस्थ (गृह्यसूत्र आरण्यक) सहिता दाता की भारती को भारतीय क्या विश्वजनीन करने के. उदात्त लक्ष्य को उद्देश्य मानकर बनी 'कुन्दकुन्द भारती ने अपने आपको 'अहमेवमतो जिनवाण्या' क्यो किया? जबकि सम्पादन मे पूर्णरूप से उन पूर्वपाठो के विषय से साधार सूचना का भाव था जिन्हे अब अनेकान्त से मागकर ‘सय अच्छी आउली करिय वअस्स अस्स कारण पुच्छेसि' करके अब अनेकान्त से मागा गया। और न देने की बात करके परम्परा से आगत पदो के साथ कामाचार किया गया है। प्रत्येक पृष्ठ पर रिक्त बहुयभाग या भाग यह सूचित करता है कि यहा सम्पादन में उपयुक्त-पाठान्तरो के लिए ही हमे इस वर्द्धमान कागजमूल्य? मूल्य/मूल्यो के युग मे छोडा गया है। अनायास ही ये रिक्त स्थान श्री १०८ आचार्य विमलसागर जी की शास्त्र-प्रतिष्ठा की ओर स्वाध्यायी जैन-जगत को सादर साभार आकृष्ट करते है। क्योकि इसमे इस अभिनवता, असाधारणता, व्ययनिरपेक्षिता का लेश अद्यावधि प्रकाशित, पुनर्मुद्रित ग्रन्थो मे नही दिखता है गोकि आचार्य श्री की यह जिनवाणी -प्रतिष्ठा सभवत शतप्राय हो चुकी है। तथा उनकी तथा उपाध्यायश्री १०८ भरतसागर के चिन्तन, शिक्षादि उन्हे सक्षम सम्पादकत्व की भूमिका देते है। अच्छा होता कि समयप्रमुख मुनिश्री १०८ अपने सम्पादकजी को दिशा देते कि उनके द्वारा अधीत ताडपत्रीय तथा अद्यावधि मुद्रित प्राचीन सस्करणो को प्रति सकेत (क, ख, आदि) दे करके समस्त पाठो की सोद्धरण पुष्टि करे और टिप्पण मे अपनी मान्य उत्तरकालीन प्राकृत व्याकरणो के रूपो को मसूत्र देवे तो यह विद्यार्थी ही नही शोधार्थी-सस्करण हो जाता। जैसा कि स्व० मुख्तार बन्धुओ के समान जिनवाणीPage Navigation
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