Book Title: Anekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04 Author(s): Padmachandra Shastri Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ अनेकान्त/७ प्ररूपक श्रमण सिद्धान्तकारों के समान सर्वाग, सम्पूर्ण अनुशासित-नियमित भाषाविदों (संस्कृत पोषकों) द्वारा रचित प्राकृत काव्यों से करतलामलक है। वागरणसुत्त आदि पदों के आधार पर ही व्याकरण पूर्व-आध्यात्मिक ग्रन्थों के मूलपाठों को उत्तरकालीन व्याकरण साधित शब्दों द्वारा बदलना बालतर्क नहीं है। अपितु 'हत्थिगुम्फा' के खारवेल-शिलालेख के मूलपदों को व्याकरण या अर्थ की दृष्टि से अब उत्कीर्ण कराना है। जिसे मुनिश्री भी इहामुत्रापायावद्य' मानने से इकार नहीं करेगे। मूल (दिगम्बर) आगमो के सर्वप्रथम सूत्रकार आचार्यवर गुणधरभट्टारक के सूत्रो पर वृत्तिकार यतिवृषभाचार्य ने मगल कारण हेदू सत्थस्स पमाण णाम कत्तारा। पढम चिय कहिदव्वा एसा आइरियपरिभासा।। । तिलोयपण्णति-१/७। सुयणाणसरीरी आचार्य वीरसेन ने इसका ही अनुसरण करके घवलाटीका के मगलाचरण रूप मगल णिमित हेऊ-परिमाण णाम तहय कत्तार । वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरियो।। दिया है। उत्तरोत्तर ग्रन्थकर्ता कुन्दकुन्दाचार्य की कृति पंचास्तिकाय के संस्कृत टीकाकार जयसेनाचार्य ने भी अपनी कृति मे इस गाथा को उध्दृत करके वागरिय का पर्यायवाची 'व्याख्याय' लिखा है और इस प्रकरण को समाप्त करते “इति संक्षेपेण मगलाद्यधिकार-षडक प्रतिपादित व्याख्यातम्” ही लिखा है। उनको वागरण का अर्थ यदि सभव होता तो वे अपनी टीका में प्रयुक्त और सम्पादक श्री (ब०भा०) की उत्तरकालीन व्याकरणपरता के अनुसार केवल व्याख्यान न करके इन छहों अगो के प्रकृति-प्रत्ययादि भी लिखते अस्तु । सागारानगार घर्मो के विद्वज्जन सवेद्य रचनाकार तथा अनगारो के पाठक रूप से श्रुत पण्डिताचार्य आशाघर जी ने भी जईवसह कृत गाथा की संस्कृत छाया (अनगारधर्म भा०१-६ की व्याख्या तृतीय उद्धरण) मे की व्याख्या करके जयसैनाचार्य का ही समर्थन । व्याख्याय । ही किया हैं। वक्ता-श्रोता वचनानय से सावधान उत्तरोतर-ग्रन्थकारो ने यदि शिवकुमार महाराजादि की अवबोधकता के लिए पाठवैविध्य (पुग्गल-पोग्गलादि) किये हो तो समुचित है। क्योंकि उन्हे वत्थु सहावोघम्मो रखना था तथा द्वादशवर्ष पठन पाठन कराके भी विद्वज्जन-संवेद्य रूप से आत्मरूप को "धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम् करके जनसा धारण को जीव-उद्धार-कला (सहज पठन-पाठन एवं यजन-याजन) से वचित नहीं करना था। और अपनी भी जीविका का भार कृषि-मसि-असि धारकों पर डालकर प्रतिग्रह (दान)-उपजीवी नहीं बनना था। वे थे 'ध्वननशिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते । ख्यातिलाभपूजाविरत।। जहा तक निरवद्य सम्पादन की बात है वह समय प्रमुख श्री की व्यक्तिगत मान्यता है। जैसाकि उनसे १५.६३ को निवेदन किया गया था। मा० दि०जैन सघ का लघुतमPage Navigation
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