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जायक भाव
श्री बबूलाल वक्ता विचार से रहित जव उपयोग होगा तब उस रूप वह इमी प्रकार सुनते हुए, वोलते हुए हर वक्त तीन काम हो आप है। जिस समय किसी को जान रहा है उस समय वह रहे है पर 'मैं' कौन ? कोई हाथ को काट रहा है तब एक तो ज्ञान है और जिस समय किसी को नहीं जान रहा है, उस वह बाहर की क्रिया, एक भीतर में दुख रूप परिणाम और समय भी तो ज्ञान ही है, जब वह दूसरे को जानने का एक उसका जानना, दुख रूप परिणाम तो एक समय आता काम बन्द करके केवन ज्ञानस्वरूप स्वय ही रहे तब बात है और मिट जाता है बाहर की वह क्रिया भी मिट बने । जैसे मिथी दूध में मिली हुई है तब वह उसे मीठा कर जाती है। पर ज्ञान का जाननपना अभी भी उसी रूप से रही है पर जब वह उसमे न मिले, ऐसी ही रहे तब भी तो कायम है । पहले वह शरीर को काटे जाने रूप क्रिया वह मीठी ही है, वह तो अपने स्वभाव रूप ही है, मिश्री __ को और दुख रूप परिणाम को जान रहा था अब स्वस्थ ही है उसी प्रकार चेतन सदैव चेतन रूप ही है, किसी को अवस्था को व सुख रूप परिणाम को जान रहा है। और जाने चाहे न जाने, विकल्प करे या न करे, हर हाल मे वह एक बात और है हाथ का काटा जाना ही भीतर के दु.ख चेतन रूप ही है। यह (जीव) जो विचार उठाता है वह का कारण हो ऐसा भी नही, ऐसा होता तो मुनि आदि राग है, निर्विचार बने, निर्विकल्प हो तो बात ठीक हो। इतने उपसर्ग व परीषह के समय भी कसे स्थिर होते? यदि यह मन का आश्रय लेगा तो विचार उठेंगे, उसका ये बड़े-बड़े क्रान्तिकारी हुए है जिन्होने इतनी-२ यातनाएं माश्रय न लेकर आप अपने आश्रय मे ज्ञाता बने, ज्ञायक सहर्ष झेली, उनके भीतर मे उस जाति का राग नहीं था। रूप रहे कि मैं जान रहा हू बस, लेकिन विचार करने की भगतसिंह को जिस समय फासी होने लगी तो पहले दिन इसको ऐसी आदत पड़ गई है कि यह इस बात को ही की अपेक्षा उसका बजन दो-तीन पौड बढ़ गया था। स्वीकारने को तैयार नही कि निर्विकल्पपना भी हो सकता आपने रोटी खाई तब भी तीन काम है, ज्ञान ने खाते
समयभी उसे जाना और जब वह क्रिया खत्म हो गई तब भी प्रश्न--निविकल्पता कैसे हो?
जानने रूप क्रिया हो रही है तभी तो कह रहे हो कि भोजन उत्तर-पहले तो हम इस बात को पकड़ें कि कोई स्वादिष्ट था इससे सिद्ध होता है कि कोई भीतर में ऐसा भो जीव हो भव्य हो, अभव्य हो, ज्ञानी हो, अज्ञानी हो, जानने वाला है जो उस समय भी था और अब भी मौजूद प्रत्येक के भीतर मे दो काम हो रहे है एक तो कर्म का है। रास्ते चलते हुए भी तीन काम हो रहे है, तीन मे से कार्य और एक ज्ञान का कार्य। कर्म के अनुसार शरीर मे दो काम तो बदल रहे हैं नाशवान हैं अत. कर्म के है और घाव हुआ, ज्ञान ने उसे जाना, जब घाव ठीक हो जाता है जानने का काम सतत एक रूप है, स्थाई है अत: आत्मा तो ज्ञान शरीर के उस स्वस्थ रूप को जानने लगता है। का है, हमारा है। यद्यपि वह कर्म का काम चेतना के उस घाव के होने पर भीतर में, भाव में जो सुख दुःखादि अस्तित्व मे हो रहा है फिर भी चेतना का अपना नहीं है, होते हैं ज्ञान उसे भी जानता है। आपने किसी जीव की पर-कृत है जैसे कोई बाहर के तीन-चार आदमी हमारे घर रक्षा की बाहर मे तो उसकी रक्षा की व भीतर में दया में आकर ठहर जाएं और कोई राशनकार्ड वाला आकर रूप परिणाम हुए और ज्ञान ने उन्हे जाना। हमें यह पूछे तो हम कहते हैं कि हम तो तीन है तो हैं, तो उस समय नक्की करना है कि इनमें से मेरा अपना कौन-सा काम है। आदमी घर में सात पर कहते हैं कि बाकी चार तो बाहर