Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04 Author(s): Padmachandra Shastri Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 9
________________ स्थानीय संग्रहालय पिछोर में संरक्षित जन प्रतिमाएं पावं में कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन प्रतिमाओं का अकन है। प्रभामण्डल, वक्ष पर 'श्री वत्स' का अकन है। पार्श्व में वितान में छत्र व मालाधारी विद्याधरों का अकन है। दोनों ओर चावरधारियों का आलेखन है। परिकर में मकर व्याल एव पद्म कलियों से अलंकृत है। जिन प्रतिमा वितान, पादपीठ एवं सिर :___ तीसरी पद्मासन मे [सं० ऋ० ६०] प्रतिमा पिछोर से मालीपुर-सुजवाया [स. ऋ० १६] से प्राप्त जिन प्राप्त हुई है। प्रतिमा का सिर भग्न अवस्था में है । अल- प्रतिमा विनान से सम्बन्धित इस मूर्ति खण्ड में विछत्र, करण सापान्य स्तरीय है। दुन्दभिक एवं मालाधारी विद्याधर युगलों का अंकन है। कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्मित तीर्थङ्करी में उल्लेखनीय नरवर से प्राप्त [सं० ऋ० १८ जिन प्रतिमा पादकलाकृति[सं० ० ५]मालीपुर-सुजवाया से प्राप्त प्रतिमा पीठ पर गज, सिंह एवं मानव आकृतियों का आलेखन है। के सिर व पैर भग्न है। पार्श्व में दोनो ओर चवरधारियों पिछोर से प्राप्त जिन प्रतिमा [सं० ऋ०६१का का आलेखन है। दायाँ भाग शेष है, जिनमे त्रिभग मुद्रा में चॅवरधारी, मालीपुर-सुजवाया से ही प्राप्त दूसरी कायोत्सर्ग मुद्रा सेविकाओ का अकन है। तीर्थड्वर प्रतिमा का केवल पर मे स० ० ६] शिल्पाकित तीर्थडुर के सिर और पैर ही शेप है। भग्न है। पाश्व में दोनो ओर चवरधारियो का अकन है। पिछोर से ही प्राप्त जिन प्रतिमा [स. ऋ०६२/ नरवर से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्मित तीसरी का सिर का फीसुन्दर है। सिर पर अकित कुन्तलित [स० ० ७] प्रतिमा के सिर पर कुन्तलित केशराशि, केशराशि मनोहारी है। कर्णचाप है। पीछे अलकृत प्रभावली, वक्ष पर 'श्री वत्म' नरवर, मालीपुर-सुजवाय एव पिछार से प्राप्त ये का अकन है। पार्श्व में दोनो ओर चाउरधारियों का सभी मूतिया १०वी ११वी शती ईस्वी की है, जो मति आलेखन मनोहारी है। कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। ___ नरवर से ही प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में [स० ऋ० ८] केन्द्रीय पुरातत्व संग्रहालय, गूजरी शिल्पांकित तीर्थङ्कर के सिर पर कुन्तलित केशराशि, पीछे महल, ग्वालियर, म०प्र० (पृष्ठ ५ का शेषाश) सामग्री वहाँ से मिलती तो इस पर विशेष प्रकाश पड़ कोई भी सम्बन्ध नही रहा है। सकता था। पिछले दशक मे सोनागिर-क्षेत्र की ऐतिहासिकता पर कुछ समय पूर्व "स्वर्णाचल माहात्म्य" नामक एक कुछ विद्वानों ने विचार किया है तथा कुछेको ने उसकी - यन्थ प्रकाश में आया है। उसे बि० स०१८४५ प्राचीनता को सदिग्ध माना है। किन्तु उस पर ऊहापोह मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को अटेर निबासी कान्यकुब्ज कुलो करना इस निबन्ध का विषय नही है। उसकी प्राचीनता त्पन्न श्री देवदत्त दीक्षित ने भट्टारक जितेन्द्र भूषण के आदेश कुछ भी हो, किन्तु महाकवि रइधू के उक्त उल्लेखो से यह एव उपदेश से लिखा था। ये जितेन्द्र भूषण भट्टारक मूल- स्पष्ट हो जाता है कि १५वी सदी में कनकाद्रि अथवा संघ, बलात्कार गण, नन्दि-आम्नाय की शाखा के थे। सोनागिरि तपोभूमि, तीर्थभूमि एव साधना-भूमि के रूप में उनका निवास एवं साधना-स्थल विश्वविख्यात पुण्यक्षेत्र सुप्रसिद्ध एव ज्ञात था तथा साहित्यिक केन्द्र की स्थापना सूरिपुर मे था, जो यमुना के तट पर बसा था। सम्भवतः के योग्य मानकर ही भट्टारक कमलकीति ने काष्ठासंघ किसी समय सोनागिर की यात्रा के समय वे उस पुण्यतीर्थ एव पुष्करगण की परम्परा सम्मत एक भट्टारकीय गढ़ी से बहुत प्रभावित हो गए थे और श्रद्धाभिभूत होकर उन्होने की वहां स्थापना की थी। -मारा (बिहार) उक्त देवदत्त दीक्षित को उक्त काव्यग्रन्थ लिखने की प्रेरणा की थी। किन्तु सोनागिर की पूर्व-स्थापित भट्टारकीय गद्दी नोट-रिट्णेमि चरिउ ग्रन्थ अप्रकाशित है-संपादन कार्य से उक्त जिनेन्द्र भूषण का सम्भवत, किसी भी प्रकार का चल रहा है।Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 166