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२४, वर्ष २३ कि०१
अनेकान्त
को ना छोरू को नांवाछरू को न माय नै वाप। श्री नौकार का परभाव से प्राणा जाय छै एकला, साथे पुन्य नै पाप ॥३ अर कट करम की पासी ॥१०
. बीनती मनोहर-मनोहर कवि द्वारा लिखित ८ १२. जिनवाणी:-तेरहपंथी मन्दिर टोंक के गुटका छंद की 'वीनती' तेरहपथी मन्दिर के ग्रन्थांक ५० ब के नं. ५० ब के पृ० ४४, ४६ पर किसी अज्ञात कवि की पृ० ६७-६८ पर अंकित है। मनोहर ने इसे चाकसू
यह रचना उपलब्ध है। इसमें ससार की नश्वरता बत(चम्पावर्ती) में लिखा। 'वीनती' में कवि ने भगवान्
लाते हुए जिन वाणी को धारण करने का उपदेश दिया शान्तिनाथ के दर्शन की उपलब्धि का वर्णन किया है
गया हैरोग सोग दुष ढंद गया, जिण के देषता रे हां।
लष चौरासी र जीबड़ा तू ज़ोनिनों में जी, रोम रोम आनंद भयो, प्रभू पेषतां,
तु तौ फीरीयो छै बार अनंतो। चरण सफल करि जात, धात करि पाप की।
दुष दुरगति का रै जीवडा ते भोगिया जी, पंनि भरे भंडार सार करि प्रापकी
ते तो जाण्यो नै जीण को महंतो। मंगला कोड़ि कल्याण हुवा जिण गावतां,
१३. जीणबाणी-उक्त गुटके के पृ० ४७-४६ पर मंदिर देषि जिणंदा सुभावन भावता।
६ छद की एक दूसरी 'जीणवाणी' भी है । 'इसमें 'कुमति' ६. 'वधावी-उक्त ग्रन्थाक में उपलब्ध हर्षकीर्ति को प्रतारणा दी गई हैकी इस रचना में भगवान ऋषभदेव के जन्मोत्सव का तेरी संगति कौन भलै री, मीथ्या ममता सषी तेरी। वर्णन किया गया है । इस रचना मे ११ छद है
जा के घट न बैठ न पावै, वाकौं दुरगति लै पहोचाव। श्री बाजा बजिया घरां जहां जनम्या है श्रो
१४. जिन भक्ति-उसी गुटके के पृष्ठ ४२-४४ पर रीषभकुमार।
एक रचना 'जिनभक्ति' है। इसमे जिनभक्ति के द्वारा बाजा बाजिया घरां राजा नाभि वधावरणां घरां,
तरे हए प्राणियो की चर्चा करते हए जिन भक्ति की मरुदेवी कुषि लीयो अवतार ॥२
महिमा गाई गई है--- १०. बीनती चन्द्रप्रभ को-हर्षकीति की 'बघावो' सिंह स्याल सम ह चल, मदगल मद तजि जाय । रचना के के बाद उपलब्ध ८ छदों में यह रचना भोनराज जिनवर नाम प्रभाव स्यौं, सरप माल सम काय। की है। रचना का प्रारम्भ सरस्वती और सद्गुरु की वंदना
१५. सहेल्यो गीत :-उक्त गुटके के पृ० ८२-८४ से करते हुए कवि ने चन्द्रप्रभु के गुणो का गान किया है
पर अकित 'सहेल्यो गीत' सुन्दर कवि की रचना की है। ता को तो ग्यांन अनंत हो भव्य प्राणी,
डा. प्रेमसागर जैन से सुन्दरदास कवि की रचनामों की जी हों पार न को पावै नहीं जी,
चर्चा हिन्दी जन भक्तिकाव्य और कवि मे पृ० १६१-१६४ सुरनर करही विचार हो भव्य प्राणी,
पर की है। उन्हे ७ पद्य की रचना 'धर्मसहेली' वधीचंद जी हो जिनका गुण गावै सही जी।।
मन्दिर जयपुर मे प्राप्त हुई थी। किन्तु 'सहेल्यो गीत' में ११. श्री नोकार :-ग्रन्थांक ५० ब के गुटको मे ही १० छद है। फिर भी दोनों रचनाए एक भी हो सकती पृ० ४६-४७ पर अज्ञात कवि की रचना 'श्री नोकार' है। कवि ने सख्य स्थापित करके मन को प्रबोधन दिया . संगृहीत है। इसमें ११ छंदों में श्री नमस्कार मंत्र से तारे हैगये प्राणियों का नामोल्लेख करते हए उसका चमत्कारी सहेल्यो हे नरक निगोद्या मांहि, प्रभाव कहा है
रुलि आये चीरु काल को जी, हो आगे जी मुकत्या वै गया,
सहैल्यो है जहां कोई अपणो नाहि, अरु और भी वे ही जाइ।
दुष सहै तहां एकलौ जी ॥३