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ढूंढाड़ी जैन रचनाएँ
पीछे इन्द्राणी सब, प्रभु को रूप निहारि । भणिमय आभूषण सबै, पहराये अतिसार ।।
'नेमनाथ कल्याणक वर्णन' तेरहपथी मन्दिर टोंक में प्राप्त गुटका नं० १०० ब के पृष्ठ ३१-३८ पर संग्रहीत है । २. नेमीसुर जी की वीनती - इसके रचयिता मोहनसागर के शिष्य मनरूप है । कवि ने अपने गुरु को सकल कलानों में प्रवीण कहा है। नेमिनाथ जी के वैराग्य की कथा में राजमती विरह का प्रसंग बड़ा मर्मस्पर्शी हैराणी तो राजत बीनबं थान्हा आदि सनेह | नवभव केरी प्रोतड़ी हो नेम जो, थंजिन छांड़ो नेह । लाग शाहिमी जेम कहै, और वरो भरतार | नवभव हो प्राडो, हा नेमजो, सावलियो सरदार । समझाई समुझे नहीं, राजल राज कुवारि । वोछे जल ज्या मछली, हा नमजी, करती दुष अपार । यह रचना तेरहपंथी मन्दिर टोंक मे विद्यमान ग्रंथांक १०० ब के पृ० १४५ १४६ पर संगृहीत है ।
३. बीनती मलूकदास - मलूकदास की यह विनती उक्त ग्रन्थ के पृ० १४६-१४८ पर प्रकित है । कवि ने प्रारम्भ में शारदा और गुरू की स्तुति करते हुए जिनेन्द्र की महिमा का वर्णन किया है
जिण जी गढ़ गिरनारि सुहावणं, जिण जी जीठ है सध्या नेमकुवार | जिण जी तप कीयो केवललीयो, जिण जी पहुच्यो है मुकति मुझारि ।
जिण जी इन्द्रादिक सेवा करें, जिण जा इन्द्राणो गावं छं गोत, जिण जी मलूकदास की वोनती,
जिणजी रासो चरना पाति ।
४. रिषभ जी को मंगल- उक्त ग्रन्थांक के ही पृ० १०३ - १०५ पर रूपचंद कृत 'रिषभ जी को मंगल' संगृहीत है । ढ़ा० प्रेमसागर जैन ने 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' में पृ० १६८-१७४ पर पाण्डे रूपचन्द के कई ग्रन्थों की चर्चा करते हुए उन्हें हिन्दी का समर्थ कवि माना है। 'रिषभ जी को मगल' उन रचनाम्रों के प्रतिरिक्त ढूंढाड़ी में ११ छद ली छोटी सी रचना है। आदि तीर्थकर ऋषभदेव के जन्म से लेकर समवशरण तक
इसमें
का सक्षिप्त वर्णन किया गया है। समवशरण की छवि दृष्टव्य है समोसरण प्रति है वड़ो, दीठड़ो, चउमुख देव । अमर सचर नर सेवक बाजो, नर प्रति बय्या जो 15 हाटकवणो सरीर हौ, उतऱ्या जण भवतीर, गरिवा हो गणधर धारक, चौरासी बण्या जी ॥
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५. सवा सौ सोब : तेरहपंथी मन्दिर, टोंक के ग्रन्थाक ५० ब के पृष्ठ ११६ १२२ पर यह रचना सग्रहीत है । इसके लेखक विजयहर्ष हैं। श्री विजयहषं ने इसमें ३५ छदों मे सवा सौ शिक्षाये लिखी हैंभोजन उपमा न कहै भूडो, अपणी जाति बिचारै ऊडी । जिण सांभलता उपजे लाज, एहों मैं कहै बयण अकाज |
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६. कलियुग महिमा - उक्त ग्रन्थांक के पृ० १२६१३० पर १० छद की 'कलियुग महिमा' उपलब्ध है । इसके लेखक करमचद हैं । कवि के अनुसार कलियुग के दोषों ने ही उसे रचना लिखने के लिए प्रेरित किया है। कलियुग की विडम्बनाम्रो के सम्बन्ध में कवि तुलसीदास जैसे विचार ही प्रकट किये गये हैं। नीच तणाइ घरि लिषमी लोला, उत्तम घर उडायौ । निरधन नै घरि बेटा बेटी ।
धनवत एको न पायो रे । ६ संघाते बेटो, घणो मनोरथ जायौ ।
न मिले बाप
हाथ उपाड़े, मान ताड़े, रमणी ने उम्हायो रै ॥७
७. हितोपदेश वैराग्यरूप - उपर्युक्त ग्रन्थाक के पृ० १३८-१३६ पर यह रचना संगृहीत है। इस रचना के लेखक महमंद है - 'महमद कहै वस्तु बौरीय, जे क्यों श्रावे रे साथ । ससार की नश्वरता का बोध कराना ही रचना का उद्देश्य है
भूलौ मन भमरा काई भमो भमौ दिवस नै राति । माया नौ बांध्यो प्राणियों, भमै परमल जाति । २