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चित्तौड़ का दिगम्बर जैन कोतिस्तंभ
छेदने वाला इस कलियुग में मानो साक्षात् धर्ममूर्ति ही पुण्यसिंह हमेशा विशालकीति यति (संवत १२६६था ॥२६॥ इनके-हाल्ल, जीजु, न्योट्टह, असममिघ, ७१) को भजते थे । ये कुंदकुंदाम्नाय और सरस्वती गच्छ श्रीकुमार, स्थिराख्य ऐसे छह पुत्र थे । ये ससी-विजयी के थे । स्याद्वाद विद्यापति (अजमेरगादि के पट्टाधीश) तथा चक्रवर्ती थे। इनमे जीजु नाम के पुत्र का ख्याल और इस धरत्री पर उत्कृष्ट तपोनिधि थे ॥ ४० ॥ वे जीव दया तथा जीर्णोद्धार की तरफ ज्यादा था। ये त्रिवर्ग कवि, उपन्यास के कर्ता परवादिमद को नष्ट करनेवाले, के प्रभ और जैनधर्म के अनुरागी थे ॥२७॥......... प्रचुर प्रेमरस को बहाने वाले थे। इनका श्रुतभंडार चित्रकूट में श्रीचन्द्रप्रभ का उत्तुग शिखरबद्ध प्रासाद विपुल तथा समृद्ध था ।।४१।। ये योगशास्त्र के अभ्यस्त, बनाना. निर्जन प्रदेशों को नष्टकर-सूरिजी के पाश्रम मीमासक-साख्य प्रादि कूवादि सर्पो का दर्प हरण करने में, तलहट्रि भाग में, खोहर, सांचोर, बूढा डोंगर (गढ़), वाले गरुड़ थे, और विद्युत जैसी चंचल तथा दिव्यवाणी सुमिर, जाने (फल) आदि स्थानों में श्री चैत्य विराज
के धारक थे ।।४२।। इनके शिष्य शभकीति थे, जो तपोमान करके, महादिमगल ऐसे इस मानस्तभ को प्रारम्भ
नुष्ठान में निष्ठा रखने वाले, संसार-विकार से भयभीत कर निवृत्त हुए, पुत्र पूर्णसिंह के ऊपर उसकी जिम्मेदारी
स्वभावतः ही गुणारागी थे। प्रारब्ध के अनुसार मृत्यु डालकर यह धर्मानुरागी महात्मा सुमंगल के लिए इद्रिय,
महोत्सव के समय प्रदेह दशा प्राप्ति के हेतु यह निसारदेह जयी होकर समाधिमरण को प्राप्त हुआ ॥३०॥ यह छोडते समय इन्होने पचाक्षरी मत्र का मध्यस्थ भाव से पुण्यसिंह भी धर्मधुरा को अच्छी तरह से बहनेवाला,
ध्यान किया था ॥ ४३ ।। इनके शिष्य धर्मचंद मुनि जयबन्त हो ॥३१॥ जिम्मेदारी पाने पर दिनोदिन
(सवत् १२७१ से १२६६) थे, जो सिद्धान्त सागर के अभ्यास बढ़ता गया, और विषम परिस्थिति मे भी वे
पादगामी, विख्यात तथा शुद्ध चरित्र थे। इनकी यशःकीतिसपन्न बने ॥३८॥ परंपरा से मिले सद्धर्म को बढ़ाते
कीति नारसिंह से भी बढकर थी, और हमीर भूपाल ने समय अनेक आपत्तियो का सामना करना पड़ा और उस
इनका सत्कार किया था ।।४४।। इनके चरण सानिध्य में धर्मथुरा को अद्भुत रीति से चलानेका विक्रम किया॥३३॥
प्रतिष्ठा योग्य मानस्तभ को धनिक श्रीपूर्णसिह प्रगट करते जिसका पुण्य शिरोभागी शोभता है, चक्रमडल में जिसकी
भये ॥ ४५ ॥ वाणी, त्रिजगत्प्रासाद में जिसकी कीति तथा निर्मल कमल
इस तरह तीनो लेख स्पष्ट करते है कि (१) साहू मे जिसकी धर्मलक्ष्मी शोभती है ऐसा-॥३४॥ यह जीजा के पूर्वज मूल चित्तोड के निवावासी न थे । वे घनिक साहकार अपूर्व है, क्योंकि याचको को इच्छित दान
की किसी नगरी के रहने वाले थे और यात्रा देने पर भी अहर्निश यह अपनी सम्पत्ति को बढ़ाता गया। निमित्त साह जीजा का आगमन यहा हुआ था । (२) साहु सत्पुण्य संचय ही श्रेष्ठ है ॥ ३५ ॥ सपद और शान्तिरूप जीजा ने सिर्फ चित्रकूट में ही कार्य नहीं किया था तो यह ही यह अगीकृत कार्य बहता हुआ विग्रह को भेद कर उनका अन्तिम कार्य था। इसके पूर्व मे मूर्तिलेख मे अमरपद को प्राप्त हुआ ॥ ३६ ॥ दानी लोगों में सिंह उद्धत-अष्टोत्तरशतमहोत्तुग शिखरप्रासाद समुघरणधीर. ऐसा यह पुण्यसिंह जयवन्त रहे, जिसकी कीर्ति कामिनी त्रिलक्षश्रीजिनमहाविबोधारक - अष्टोत्तरशत श्रीजिननेत्र मे अंजनि जैसी स्पष्ट झलकती है ।। ३७ ।। ...क्या महा प्रतिष्ठाकारक-अष्टादशस्थाने अष्टादशकोटिमेरु क्या सुवर्ण, क्या हरि, क्या चन्द, जिसके पुण्य प्रताप श्रुतभंडार संस्थापक-सवालक्षबदीमोक्षदायक-पादि के आगे फीके हैं, ऐसा धर्मधुराधर पुण्यसिंह इस कलियुग अनेक विशेष गुणों पर इन शिक्षालेखों से प्रकाश पड़ा है। में जयवन्त हो ॥ ३८ ।। एक-सुमेरु, सुरगुरु, हरिमुरारी, अकोला के सेनगण दि० जैन मदिर मे मूर्तिलेख को प्राप्त रुद्र-समुद्र, चन्द चन्द्रिका, इन सबसे पुण्य मे उन्नत तथा । होने पर मै सोचता था कि, चित्तौड़ के गौरव का उल्लेख बुद्धि से निर्मल है, तथा स-पूर्ण रत्नों के सहित होने से करने वाली सामग्री वहां से सैकड़ों-हजारो मील दूरी पर 'पृथ्वी पर यह पूर्णसिंह नाम से प्रसिद्ध है ॥३६॥ पर प्राप्त हो सकती है, तो क्या उसके इर्द-गिर्द प्राप्त न