Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ १४ अनेकान्त विषय इन्द्रायणके फल समान है, मंमारी जीव समाप्त हुई है अर्थात मं० १७७७ मे लेकर मं० १८२६ इनको चाहै है सो बड़ा आश्चर्य है, जे उत्तमजन तक ५२ वर्ष का अन्तराल इन दोनों टीका ग्रंथोंके बिषयों को विषतुल्य जानकरि तजै हैं अर तप करें मध्य का है। है ते धन्य हैं, अनेक विवकी जीव पुण्याधिकारी इस टीका ग्रंथ का मूल नाम 'पद्मचरित' है। महाउत्साहके धरणहारे जिन शामनके प्रमादमे उसमे सुप्रसिद्ध पौराणिक राम, लक्ष्मण और मीता प्रबोधकों प्रान भये है, मैं कब इन विषयों का त्याग के जीवन की झांकी का अनुपम चित्रण किया गया कर स्नेह रूप कीचसे निकस निवृत्ति का कारण है। इसके कर्ता आचार्य रविषण है जो विक्रम की जिनेन्द्रका मार्ग आचरूंगा। मैं पृथ्वीको बहुत आठयी शताब्दीकं द्वितीय चरणमे ( वि. मं. सुखसे प्रतिपालना करी, अर भोग भी मनवांछित ७३३ में) हुए है। यह ग्रंथ अपनी मानीका एक ही भोगे अर पुत्र भी मेरे महा-पराक्रमी उपजे | अब है। इस ग्रंथकी यह टीका श्री ब्रह्मचारी रायमल्लक भी मै वैराग्यमें विलम्ब करू तो यह बड़ा विपरीत अनुरोधस मंवत १८२३ मे समाप्त हुई है। यह है, हमारे वंश की यही रीति है कि पुत्र को राज- टीका जैनसमाजमे इतनी प्रसिद्ध है कि इसका पठन लक्ष्मी देकर वेराग्यको धारण कर महाधीर तप पाठन प्राय' भारतवर्षक विभिन्न नगरों और गावों करनेको वनमें प्रवेश करे। ऐमा चिन्तवन कर राजा में जहाँ जहाँ जैन वस्ती है वहांक चैत्यालयांम भोगनितै उदासचित्त कई एक दिन घरमें रहे।" अपने घरोंमे होता है। इम ग्रन्थकी लोकप्रियता -पद्मपुराण टीका पृ. २६५-६ का इमसे बड़ा मुबृत और क्या हो सकता है कि इमकी दश दश प्रतियाँ तक कई शास्त्रभंडारोंमे इसमें बतलाया गया है कि राजा दशरथनं देवी गई है। सबसे महत्वकी बात तो यह है कि किसी अत्यंत वृद्ध खोजेके हाथ कोई वस्तु गनी इस टीका को मनकर नथा पढ़कर अनेक मजना की केकई के पास भेजी थी जिसे वह शरीर की अस्थि- श्रद्धा जैनधममें मुदृढ़ हुई है और अनको की रतावश देरसे पहुंचा सका, जबकि वही वस्तु अन्य चलित श्रद्धा को दृढ़ना भी प्राप्त हुई है । ऐसे कितने रानियोंके पास पहले पहुंच चुकी थी। अतएव ही उदाहरण दिये जा सकते है जिन्होंने इम टीका केकई ने राजा दशरथसं शिकायत की, तव गजा ग्रन्थके अध्ययनसे अपने को जैनधर्मम आढ़ दशरथ उस खोजे पर अत्यंत क्रूद्ध हुए, तब उम किया है। उन सबमें स्व. पूज्य बाबा भागीरथजी खोजेने अपने शरीर की जर्जर अवस्थाका जो परि- वर्णी का नाम खामतौरमं उल्लेखनीय है जो अपनी चय दिया है उससे राजा दशरथको भी सोनारिक- आदर्श त्यागवृत्तिके द्वारा जैनसमाजम प्रमिद्धि को भोगोंसे उदासीनता हो गई, इस तरह इन कथा प्राप्त हो चुके है। आप अपनी बाल्यावस्थाम जैनपुराणादि साहित्यके अध्ययनमे आत्मा अपने स्व. धर्मके प्रबल विरोधी थे और उसके अनुयायियों रूप की ओर सन्मुग्व हो जाता है। तक को गालियाँ भी देते थे, परन्तु दिल्लीम जमुना स्नान को रोजाना जाते समय एक जैनमजन का ऊपरके उद्धरणसे जहाँ इस ग्रंथकी भापाका मकान जैनमंदिरके ममीप ही था, वं प्रतिदिन प्रात.. सामान्य परिचय मिलता है वहाँ उसकी मधुरता एवं रोचकताका भी आभास हो जाता है। पंडित दिन आपने उसे खड़े होकर थोड़ी देर मुना और काल पद्मपुराण का स्वाध्याय किया करते थे । एक दौलतरामजीने पांच छह ग्रंथोंकी टोका बनाई है। पर उन सबमें सबसे पहले पुण्यानवकथाकोषकी १ संवत् अष्टादश सतजान, नाऊपर नेईम बम्बान । और सबसे बादमें हरिवंशपराणकी टीका बनकर शुक्लपक्ष नौमी शनिवार, माघमाम रोहिणी रिखिसार ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 508