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फिर कभी जल लकीर के समान क्षण-विनश्वर आयु वाले पशु-पक्षी के मल-मूत्र से उत्पन्न समूच्छिम मन रहित असंज्ञी तिर्यच-पंचेन्द्रियों के स्वाँगों में भी मुझे अपार कष्ट सहने पड़े। पर इन सभी स्वाँगों में मैंने (दीदार=) देखादेखी के रूप में भी कभी भगवान को नहीं देखा। इस तरह उपरोक्त स्वाँगात्मक असंज्ञी-घाटी को किसी तरह पार करके मैंने संज्ञी-घाटी की ओर अपनी गति बढ़ाई कि जहाँ मन युक्त पाँचो ही इन्द्रियों वाले स्वाँग धारण किये जाते हैं।
४. असंज्ञी धाटी के सीमा प्रान्त में मानव-मलमूत्र से उत्पन्न समूर्छिम सूक्ष्म शरीर-रूप मन रहित मनुष्य (प्रतिभास =) आकृति वाले विविध स्वाँगों का ग्रहण-त्याग करते हुये बड़ी मुश्किल से उसे पार करके मैंने संज्ञी-घाटी की तराई में प्रवेश किया और वहाँ देखा तो सातों ही प्रकार के नारकों के स्वाँगों में जो जो कष्ट हैं उन्हें व्यक्त करने के लिए भी वाणी में क्षमता नहीं है । घाटी के मध्य विभाग में तियं च पशु-पक्षियों के कष्टों की हालत तो प्रायः जग-जाहिर ही है। गर्भदशा में ही गलने वाले अपर्याप्ता पशु, पक्षी और मानव स्वाँगों में भी कोई कम कष्ट नहीं हैं। इन सभी स्वाँगों में भी पारावार कष्ट सहते हुये मैंने दीर्घ काल बिताया। फिर महान कष्टप्रद इन लम्बी घाटियों को किसी तरह पार करके सामान्य कष्ट-समरांगण में प्रवेश किया।
पर्याप्ता-गर्भज मनुष्यों में से अनार्य मानवों के सम्बन्ध वाले स्वाँगों में भी कई बार आया, पर वहाँ मुझे धर्म-अधर्म का विवेक नहीं था। इसी तरह कुदेव के स्वाँग भी बहुत बार धारण किये, पर वहाँ भी विषय वासना वश नाज-नखरे और खेल-कूद से मुझे फुरसत नहीं थी। इन सब कारणों से तब तक मुझे कोई निपुण सजीवनमूर्ति हाथ ही नहीं आये।
५. हे संगिनी ! तुम निश्चित रूप में जान लो कि उपर्युक्त ऐसे बहुत से स्थान हैं कि जहाँ जिनेन्द्र-देव के जैन दर्शन का भी दर्शन नहीं हो पाता, तब भला जिनदेव का दर्शन कैसे हो ?
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