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तथा कोपीन अधिक रखते हैं। एलक और क्षुल्लक, श्रावकों में एकादशवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक माने जाते हैं । ग्यारह प्रतिमा का क्रम इस सम्प्रदाय में अब तक प्रचलित है । यहाँ आहार शुद्धि का अत्यधिक विवेक है |
देश काल और परिस्थिति वश क्षुल्लक पद्धति का विस्तार करके श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने स्थविरों, वृद्धों के लिये चौदह संयमोपकरण कायम किये जिसका उल्लेख वृहत् कल्प ग्रन्थ में निम्न प्रकार है :
१. रजोहरण २. सोलह अंगुल प्रमाण वस्त्र - खण्ड की मुहपत्ती ३. एक हाथ भर के चौकोर वस्त्र का दुवड़ा या चौवड़ा चोलपट्टाकोपीन ४. ५. ६. ढाई से चार हाथ तक लम्बी और ढाई हाथ चौड़ी दो सूती एवं एक ऊनी चादर ७. ८. मिट्टी, काष्ठ किंवा तुम्बी का एक मात्रक बड़ा पात्र और एक भोजन के लिये मध्यम प्रमाण से चालीस अंगुल की परिधि वाला पात्र ९. पात्र बन्ध १०. पात्र - स्थापन ११. पात्र केशरिका १२. पडला १३, रजस्त्राण और १४. गोच्छक ।
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रजोहरण जीव रक्षा के लिये अनिवार्य होने से दिगम्बर सम्प्रदाय में पक्षी - पिच्छों का प्रचलित था । जैसे कि गृद्ध - पिच्छ, मयूर - पिच्छ आदि, पर अब केवल मयूर - पिच्छ का ही प्रचलन है । यह पद्धति मूल गामिनी प्रतीत होती है क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी योगोद्वहन द्वारा सूत्र - आराधना विधि में मयूर पिच्छ का दंडासन अनिवार्य बताया जाता है । मयूर - पिच्छ सर्वत्र सुलभ न होने से श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने रजोहरण - विधि निम्न प्रकार से अपनायी :
ऊनी कम्बल, उष्ट्र-कम्बल अथवा राण, मूंज किंवा वच्चक घास की बनी बोरी का बतीस अंगुल लम्बा और अंगुष्ठ-यव के ऊपर तर्जनीनखाग्र के रखने पर बीच में समा सके उतना चौड़ा खण्ड करके उसके नीचे से आठ या बारह अंगुल प्रमाण आडे तन्तु निकाल करके बीस या चौबीस अंगुल की दण्डी पर उसे लपेट लेना तथा तीन बन्धनों से
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