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दो तीन-तीन रोज एक ही आसन में समाधिष्ठ रहते हुये भी देखे गये ह। उपसर्ग परिषहों को सहने की उनमें अथाह क्षमता है । ___ यदि आपको एक बारगी उनके दर्शन मात्र हो जाँय तो आप उनके ही हो जाँय-ऐसा मुझे विश्वास है। वास्तव में इस काल के वे युगप्रधान पुरुष हैं। उनके सम्बन्ध में आपको अधिक क्या कहूँ ?
उक्त बात को सुन कर और वक्ता के व्यक्तित्व को देख कर वे मुमुक्षु बन्धु प्रसन्न हुये और तीर्थयात्रा की समाप्ति करके वे उनके साथ क्रमशः मरुधर-भूमि में आकर सन्त आनन्दघनजी के सान्निध्य में उपस्थित हुये। बाबा की प्रशम मुद्रा और अनिमेष अन्तदृष्टि के दर्शन पाकर वे अतीव सुन्तुष्ट और प्रभावित हुए। बाद सविनय नमस्कार करके उनमें से एक विद्वान ने बाबा से धर्म चर्चा प्रारम्भ की।
--DRIOUDEDO
अरनाथ स्तवन के शब्दार्थ
स्व = अपना । पर = अन्य का। समय = सिद्धान्त । महिमावंत यशस्वी । परवड़ी = अनात्म भाव वाली बड़ी। छांहड़ि = छाया। नखत = नक्षत्र । दिनेश = सूर्य । कनक = स्वर्ण । परजाय = पर्याय, अवस्था। अभंग = अखंड, भेद रहित । चरण = चारित्र । अलख = अलक्ष, अदृश्य । निरविकल्प विकल्प रहित, भ्रान्ति रहित, शान्त भाव । निरंजन = निर्दोष, निर्मल । रंजे = प्रसन्न होवे । लखि = लक्ष, साधना बिन्दु। लख=लक्ष्य । दोहिलो = कठिन, दुर्लभ, दुष्कर । कांइ=कुछ भी। दुविधा = संशय । गहि = पकड़ कर । तले = नीचे । चक्री = चक्रवर्ती लहै = प्राप्त करे, पावे । निरधार = निश्चय ही ।
नोट-गुरुदेव के द्वारा किया विवेचन यहीं तक का है। अतः आगे के स्तवन मूल मात्र दिये जा रहे हैं। अन्तिम दो पार्श्वनाथ व महावीर स्वामी के यशोविजयजी (?) देवचंदजी और ज्ञानसारजी द्वारा रचकर पूर्ति किए गए ६ स्तवन भी दिये जा रहे हैं।
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