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शुद्धा शुद्धि पत्र
पृष्ठ
xxi
ज्ञानसारजी
अशुद्ध ज्ञानसागरजी बाते धूजोते
वाले
xiii xiv
धूजते
XV
को
6
ग
३२
८७
८७
हे का दर्शन प्रप्ति
प्राप्ति होसे से
होने से प्रवक
पूर्वक प्रवार
प्रवाह नजि
निज अनियमत अनियमित योगियों
भोगियों प्रयोजन हेतु प्रयोजन रूप बहिर्मुक बहिमुख अणुव्रत
गुणव्रत सम्बन्ध से मुक्त हैं (पंक्ति के प्रारंभ में न रह
कर अंत में रहेगी) प्रतिष्ठा
प्रतिष्ठ पक्ति के प्रारंभ में सम्बन्धित होते ही छटा अपार
अफर प्रयोग
प्रयोग से ही हुआ करता है तब
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