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३ संभव जिन चैत्यवंदन
स्व-स्वरूप प्रगटाववा, सेवं संभव देव ; सतत रोमांचित थिर-मने, सत्पुरुषारथ टेव...१ सदा सुसंताधीन करी, कार्य देह-मन-वाक् ; सेवन थी सहेजे सधे, भवस्थिति नो परिपाक २ ध्येये ध्यान एकत्त्वता, बीजी आश निराश ; असंभव रही संभवे, सहजानंदघन वास ३
४ अभिनंदन जिन चैत्यवंदन
लहुँ केम स्याद्वाद मय, अनेकान्त शिव-शर्म ; स्वानुभूति कारण परम, अभिनंदन तुझ धर्म..१ नय-आगम-मत-हेतु-विख,-वाद थकी नवि गम्य ; अनुभव संत-हृदय वसे, तास सुवास सुगम्य २ असंत-निश्रा भ्रान्तिदा, टाली सकल स्वच्छंद ; संत कृपाए पामिए, सहजानंदघन कंद...३
५ सुमति जिन चैत्यवंदन
आतम अर्पणता करूं, सुमति चरण अविकार ; वामादिक गुरु-अर्पणा, धर्म-मूढता धार...१ इन्द्रिय नोइन्द्रिय थकी, पर-उपयोग प्रसार ; प्रत्याहारी स्थिर करो, संत-स्वरूप विचार""२ आत्मार्पण सदुपाय छे, सहजानंदघन पक्ष; सहज-आत्म स्वरूप ए, परम गुरु थी प्रत्यक्ष""३
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