Book Title: Anandghan Chovisi
Author(s): Sahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 226
________________ १२ वासुपूज्य जिन चैत्यवंदन वासुपूज्य-जिन सेवना, ज्ञान-करम फल काज ; करम करम-फल नाशिनी, सेवो भवोदधि पाज""१ निज पर शुद्धि कारणे, भजिए भेद विज्ञान ; निज-निज परिणति परिणम्ये, प्रगटे केवलज्ञान २ स्वरूपाचरणी संत छे, भाव लिंग विश्राम ; भेद ज्ञान पुरुषार्थ अ, सहजानंदघन ठाम...३ १३ विमल जिन चैत्यवंदन झगमग ज्योति विमल प्रभु, चढी अलोके आज ; हृदय नयण निरख्या अहो ! भांग्यो विरह समाज...१ दिव्य-ध्वनि अनहद सुणी, अति नाचत मन मोर ; सुधा-वृष्टि पाने छक्यो, करत पर्पयो शोर ...२ उछलत सुख सायर तरल, लीन थयो मन-मीन ; संत-कृपा सहजे सध्यो, सहजानंदघन पीन...३ १४ अनंत जिन चैत्यवंदन अनंत चारित्र-सेवना, आत्म वीर्य-थिर रूप ; टके न ज्यां सुरराय के, भेख धारी नटभूप..१ मत-मठधारी लिंगिया, तप जप खप एकान्त ; गच्छधर जैनाभास पण, पर रंगी चित्त-भ्रान्त "२ टक्या सन्त कोई शूरमा, तास सेव धरी नेह ; अनेकान्त एकान्त थी, सहजानंदघन रेह "३ [ १६३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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