Book Title: Anandghan Chovisi
Author(s): Sahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 208
________________ दान विधनवारी सहु जनने, अभयदान पद दाता। लाभ विघन जगविघननिवारक, परम लाभ रसमाता हो॥मल्लि०॥८॥ वीर्य विघन पंडित वीयें हणि, पूरण पदवी जोगी। भोगोपभोग दुय विघन निवारी, पूरण भोग सुभोगी हो ॥ मल्लि० ॥९॥ ए अठार दूषण वरजित तनु, मुनिजन वृन्दे गाया। अविरति रूपक दोष निरूपण, निरदूषण मन भाया हो ॥ मल्लि० ॥१०॥ इण विध परखी मन विसरामी, जिनवर गुण जे गावै । दीनबन्धुनी महर नजर थी, 'आनन्दघन' पद पावै हो । मल्लि० ॥११॥ मल्लिनाथ स्तवन के शब्दार्थ अवर = अन्य, दूसरे। निवारी= दूर कर दिया। ताणी खींच कर । जुओ = देखो। रीसाणी = रुष्ट होकर, कुपित हो कर । काण = कानि, मर्यादा । तुरिया = चौथी। गाढी = मजबूत । काढी निकाल दी। दुगंछा=ग्लानि, घृणा । पामर=नीच । करसाली तीन दाँतों वाली दन्ताली, पुरुष-स्त्रीनपुंशक वेद, कृषक । श्वान=कुत्ता। झाली=पकड़ी। भाया = अच्छा लगा। परखी परीक्षा कर। [ १४५ 10 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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