Book Title: Anandghan Chovisi
Author(s): Sahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 214
________________ जो मनमा एहवो हतो रे वा०, निसपति करत न जाण । मनरा० । निसपति करिनै छांडतां रे वा०, माणस हुये नुकसाण ॥ मनरा० ॥८॥ देतां दान संवच्छरी रे वा०, सह लहै वंछित पोष । मनरा० । सेवक वंछित लहै नहीं रे वा०, ते सेवक रो दोष ॥ मनरा ॥९॥ सखी कहै ए सामलौ रे वा०, हूँ कहूं लखगे सेत । मनरा० । इण लखणे सांची सखी रे वा०, आप विचारो हेत ॥ मनरा० ॥१०॥ रागी सूरागी सहू रे वा०, बैरागी स्यों राग । मनरा० । राग बिना किम दाखयो रे वा०, मुगत-सुंदरी माग ॥ मनरा० ॥११॥ एक गुह्य घटतो नहीं रे वा०, सगलौ जाण लोग । मनरा० । अनेकांतिक भोगबै रे वा०, ब्रह्मचारी गत रोग॥ मनरा० ॥१२॥ जिण जोगी तुमने जो ऊँरे वा०,तिगजोगीजोबो राज। मनरा० । एक बार मुझनै जोबो रे वा०, तो सोझै नुझ काज ॥ मनरा० ॥१३॥ मोह दसा धरि भावतारे वा०, वित लहै तत्व विचार । मनरा० । वीतरागता आदरी रे वा०, प्रागनाय निरधार ॥ मनरा० ॥१४॥ सेवक पण ते आदरै रे वा०, तो रहे सेवक माम । मनरा० । आसय साथे चालिये रे वा०, एहिज रूड़ो काम ॥ मनरा० ॥१५॥ त्रिविध जोग धर आदर यो रे वा०, नेमिनाय भरतार । मनरा० । धारण पोखग तारगो रे वा०, नवरत मुगला हार ॥ मनरा० ॥१६॥ [ १५१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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