________________
निश्चय और आश्रय के बिना देव, धर्म एवं तत्तुल्य स्वात्मा के वास्तविक स्वरूप की समझ तथा दिल के दीपक को सुलगाने वाला सम्यक्-श्रद्धाप्रयोग हाथ न लगने से, वह सारा परिश्रम निष्फल ही सिद्ध हुआ, अतः मुमुक्षुओं के लिये सद्गुरु का निश्चय और आश्रय नितान्त आवश्यक है।
श्रद्धा शब्द का रहस्य निम्न प्रकार है :
श्रत् +धा + अ +टाप् = श्रद्धा। 'श्रत्' उपसर्ग पूर्वक 'धा' धातु से श्रद्धा शब्द बना है। श्रि + इति = श्रत् अर्थात् फैली हुई चैतन्य रोशनी का धा-धारण और पोषण करना। मतलब कि देखना और जानना-यह चेतन का स्वभाव है अतः देखने-जानने के लिये चेतनाटार्च का मन-रूप स्वीच दबाकर चैतन्य प्रकाश को फैलाना और कार्य समाप्ति पर्यन्त उसे धारण-पोषण किये रहना, चेतन के इस प्रयोग को संस्कृत-भाषा-भाषियों ने श्रद्धा शब्द से पुकारा। यह श्रद्धा प्रयोग दो प्रकार का होता है—एक मिथ्या और दूसरा सम्यक् । जबकि द्रष्टा को भूल कर केवल शरीर आदि पर दृश्य-प्रपंच को ही देखने जानने के लिये यह प्रयोग किया जाता है तब यह चैतन्य-प्रकाश और पर दृश्य-प्रपंच दोनों के मिथ-पारस्परिक सम्पर्क पूर्वक बहिर्मुख होता है अतः उस हालत में इसे मिथ्या-श्रद्धा कहते हैं ; एवं जब केवल द्रष्टा को ही देखने-जानने के लिये यह प्रयोग किया जाता है तब बहिर्मुख फैली हुई चैतन्य रोशनी को अन्तमुख समाना अनिवार्य हो जाता है, अतः सम्यक् चैतन्य-प्रकाश को द्रष्टा की ओर अच्छी तरह समा कर किये जाने वाले इस प्रयोग को सम्यक्-श्रद्धा कहते हैं। यहाँ दूसरे किसी के साथ सम्पर्क तो है नहीं क्योंकि चेतन और चैतन्य-प्रकाश, सूर्य-विम्ब और सूर्य-प्रकाशवत् अभिन्न एक हैं अतः मिथ्या शब्द का यहाँ काम नहीं है।
जो लोग "ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या" इस सूक्त से जड़-सृष्टि का समूचा अभाव और केवल अद्वैत-ब्रह्म का ही सद्भाव मानते हैं-यह उनका कोरा भ्रम है, ब्रह्म नहीं ; उन्हें ब्रह्म-शब्द के रहस्याथं की गम ही नहीं है। एवं जो लोग सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की दुहाई देकर भी
९० ]
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org