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जाल में नहीं फँसे, अन्यथा उस ‘टके गज की चाल' से छूटना ही मुश्किल हो जाता।
धर्म-धन पाने के लिये मैंने तो प्रारम्भ में सम्प्रदाय-जाल में फंस कर क्रियावन में मृगवत् खूब दौड़ा-दौड़ो की । साहित्यवन में भी मन को जितना दौड़ाया जा सके, अतिशय दौड़ाया। यावत् शाखा-प्रशाखा समेत प्रत्येक दर्शन-वृक्ष की छानबीन की पर सर्वत्र “अन्धेरी नगरी में गण्डुसेन राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा" ही देखने में आये, अतः कहीं से कुछ भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा और मेरी घुड़दौड़ व्यर्थ सिद्ध हुई। इतने पर भी मैं नाशीपाश न हुआ। आखिर मूल मार्ग की संकलना पर गहराई से चिन्तन करते करते एक दिन अन्तर्लक्ष जमते ही यकायक परदा हटा और जाति-स्मरण हो आया। सिनेमा की फिल्मवत् पूर्व के अनेक जन्म क्रमशः देखने में आये। जिनमें से कितने ही जन्मों में जैन साधु था। तीर्थङ्कर निश्रा में भी मैंने वीतराग मार्ग की आराधना की थी, अतः मूल मार्ग का सांगोपांग आराधन-क्रम स्मृति में आ गया। फलतः साम्प्रदायिक-जाल से मुक्त होकर मैंने निकट की प्रेम-गली में ही अपने पियु को पाया। तब मुझे अपने आप पर हँसी आयी कि अरे ! पियु तो अपने भीतर ही है जिसे कि मैं बाहर क्रिया और साहित्य-वन में ढूँढ रहा था। खैर ! जिनेन्द्र देव की कृपा से मुझे अपना परम निधान हाथ लग गया जो केवल धर्म-धन से ही भरा हुआ है। अतएव तब से मुझे सुदृढ़ प्रतीति हो चुकी कि साधना-क्षेत्र में आत्म-साक्षात्कार के लिये प्रेम-लक्षणा-भक्ति तुल्य दूसरा कोई सर्वोत्तम साधन नहीं है। यह भक्ति मार्ग सरल होने पर भी उतना ही कठिन है जितना कि मोम के घोड़े पर चढ़ कर आगी में चलना। इसीलिये इसमें गुरुगम अत्यन्त आवश्यक है और उसके लिये आवश्यक है प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी सद्गुरु का निश्चय और आश्रय । यदि सद्गुरु के परीक्षण में भूल हुई तो असद्गुरु की निश्रा में यह भक्तिमार्ग गोप-लीला और पोप-लीला का कारण बन जाता है।
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