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आत्मवञ्चना यद्यपि नहीं होती, किन्तु उन गूगे का गुड़ खाना आसान नहीं है अतः गुरु में सम्यग्दृष्टि बल और समर्थ-श्रुतज्ञान-बल दोनों का होना नितान्त आवश्यक है।
५, आत्म-घातक रागी देव-देवियाँ की साधना, मंत्र-तंत्र-यंत्र, जादू-टोना, झाड़-फूंक, दोरा-धागा, स्थंभन, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, एवं गच्छ-कदाग्रह, धार्मिक-कलह, विषय-कषाय, श्रापप्रभृति, तामसी-वृतियाँ हैं ; और मठ-मन्दिर, गुफा-उपाश्रय, गद्दोजागीर आदि का आधिपत्य तथा छत्र-चामरादि विभूति, शृंगार, तेल-तम्बोल, पौष्टिक-आहार, लोक-परिचय आदि राजसी-वृत्तियाँ हैं—ऐसी दुष्ट-वृत्तियों के प्रवाह में जो बह रहा हो वह तो मुमुक्षु कहलाने का भी अधिकारी नहीं है अतः कुगुरु है ; सुगुरु तो ऐसी राक्षसी-वृत्तियों को कालकूट तुल्य समझ कर उन्हें जड़ मूल से हो उखाड़ फेंकते हैं ; और वे उत्तम क्षमा, मृदुता, ऋजुता, निर्लोभता, तप-संयम, सत्य, शौच, ब्रह्मचर्य, अकिंचनता आदि सात्विक-वृत्तियों को अपना कर आत्मार्थ के सिवाय दूसरी लब्धि-सिद्धि आदि तक के सारे जंजाल से सर्वथा मुँह मोड़ कर केवल सिद्ध समान अपनी शुद्ध ज्ञापन सत्ता में चित्त-वृति-प्रवाह को स्थिर करके शुद्ध स्वावलम्बन में ही सदा आदरशील बने रहते हैं ।
६. सुगुरु-रूप में वे ही स्वीकार्य हैं कि जिनकी वाणी के एक-एक शब्द में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़, एवंभूत किंवा निश्चय-व्यवहार आदि सारे नयों-उपनयों का वचनाशय अविरोध-रूप से व्याप्त हो। केवल उसी के द्वारा किसी भी दृष्टिकोण का एकान्तिक अपलाप न होने से फलितार्थ में आत्मार्थ का विरोध न हो उसी तरह शब्द और अर्थ का सम्बन्ध व्यक्त होता है, फलतः वह अनुभव मूलक वाणी ही निश्चय-व्यवहार की सन्धि पूर्वक सम्यक्विचार और सम्यक्-आचार की एकता में प्रेरक बन कर सिद्धपद
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