Book Title: Anandghan Chovisi
Author(s): Sahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 187
________________ आत्मा है, वह अकृत्रिम सिद्ध समान एक-सा और स्वतन्त्र है ; कृत्रिम न्यूनाधिक और परतन्त्र नहीं-ऐसा ज्ञानियों का अनुभव है, अतः देहधारियों में परस्पर पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहन, गुरु-शिष्य, शत्रु-मित्र, अच्छे-बुरे, ऊँच-नीच, अपने-पराये आदि किये गये द्वन्द्वारोप को सही कसे माना जाय ? फिर भी जोलोग ऐसे आरोपित्तधम में मगन हैं, वे निरे अज्ञानी हैं। इसी तरह सुवर्ण और पाषाण, घास-फूस और हीरा-मणिमाणेक आदि सभी केवल मिट्टी के ही विकार मात्र हैं, फिर भी उनमें महत्व-तुच्छत्व का आरोप करके हेय-उपादेय-वृत्ति रखना-यह भी केवल अज्ञान का ही विलास है। विश्व-व्यवहार में दूसरों के साथ वर्ताव के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी ही योग्यता का प्रदर्शन करता है-सज्जन, सन्मान का अभिनय दिखाकर अपनी सज्जनता का और दुर्जन, अपमान का अभिनय दिखाकर अपनी दुर्जनता का। फिर भी दूसरों के द्वारा दिखाये गये सम्मान को अपना गुण समझकर फूले नहीं समाना एवं अपमान को अपना अवगुण समझकर क्षुभित होना-यह भी निरी बालिशता है। . लोग निन्दा; स्तुति भी अपनी-अपनी रुचि-अरुचि की ही किया करते हैं, दूसरों की नहीं तब भला ! हमारे लिये वंदक और निन्दक में क्या अन्तर है ? फिर भी जो वन्दक की स्तुति से खुश और निन्दक को निन्दा से नाखुश होते हैं-वे अज्ञानी हैं। - वास्तव में जो ज्ञानी हैं वे तो निन्दक और वन्दक को समान गिनते हैं। मान और अपमान को भी एक-सा समझ कर समचित्त रहते हैं। उनकी दृष्टि में तो क्या कनक और क्या पाषाण, क्या तृण और क्या मणि-सभी एक-से मिट्टी ही हैं। ज्ञानियों को क्या अपना और १२४] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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