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मुमुक्षु के मन की हालत को देखकर मानो उसे साक्षात् शिक्षा देने के लिए ही सन्त आनन्दघनजी का मन तत्काल स्वरूपस्य स्थिर हो गया; जिसे समीपस्थ एक चिरपरिचित सत्संगी ने समझ लिया और बाबाजी के गैबी संकेत अनुसार विनोद के लिए उसने मुमुक्षु के साथ चर्चा शुरु कर दी ।
समीपस्थ सत्सगी - ( व्यंग्य में ) भाईजी जब कि आपका मन प्रभु चरणों में लगाने पर भी नहीं लगता तब इसका मतलब यह हुआ कि इसे अपने घर में रहना ही पसन्द होगा और इसी लिए अन्यत्र लगाने पर यह दौड़ धूप करता होगा ।
२. मुमुक्षु - अजी ! यदि इसे घर में रहना अच्छा लगता हो और इसलिए दौड़ धूप करता हो तब तो हम क्यों रोते फिरते । पर इसकी दौड़ धूप विचित्र प्रकार की हैं। अपनी दौड़ धूप के पीछे यह नहीं देखता है रात और नहीं देखता है दिन । जागृतिकाल में इसका विलास क्षेत्र है बाह्य सृष्टि और निद्राकाल में है - स्वप्नसृष्टि । एक क्षण में तो यह बड़े-बड़े नगर, ग्राम, कर्वट, मण्डप, खेड़ प्रभृति बस्तियों की सैर करता है तो दूसरे क्षण में वन, उपवन, पर्वत, मैदान, नदी, समुद्र प्रभृति उजाड़ की। और क्या फिर तीसरे क्षण में आसमान के स्वर्गों की सुगन्ध झांकता है जब कि चौथे क्षण में पाताल में जाकर नरक की दुर्गन्ध में आलोटता है । पर कहीं एक क्षण भी चुप नहीं बैठता ।
सत्संगी- इसे इधर उधर से कुछ पल्ले पड़ता होगा, तब न यह भटकता है ? क्योंकि विश्व में प्रयोजन के बिना किसी को भी प्रवृत्ति देखने में नहीं आती ।
मुमुक्षु - आप कैसी बातें बनाते हैं ? इसके पल्ले पड़ने जैसा बाहर है ही क्या ?
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