Book Title: Anandghan Chovisi
Author(s): Sahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
समाधान तो बाबाजी देगें। मुझे लगता है कि यह सब आपकी मानसिक ठगाई है।
५. मुमुक्षु-मन यदि ठगाई करके कहीं से कुछ लाकर मुझे देता हो, किंवा मुझे धोखा देकर मेरा कुछ दूसरों को दे देता हो तब तो मैं इसे ठग कह सकूँ, पर इसकी ऐसी कोई ठगाई मेरी नजर में नहीं आती, अतः इसे ठग कैसे कहा जाय ? मेरे साथ ठगाई लो इन्द्रियाँ करती हैं, क्योंकि शब्द आदि पञ्च विषयों में सुख-बुद्धि करा कर वे मुझे सदैव विषय-वन की ओर आकर्षित किया करती है।
सत्संगी-आपका मन जबकि ठग प्रतीत नहीं होता तब तो साहूकार ही सिद्ध हुआ ; क्यों सही है न ?
मुमुक्षु-अजी ! यह कहाँ का साहूकार ? क्योंकि इसी की प्रेरणा पाकर ही इन्द्रियाँ अपने अपने कार्य में प्रवृत्त होती हैं। जब तक मन की प्रेरणा नहीं मिलती तब तक इन्द्रियाँ जड़-मशीनवत् कार्यक्षम नहीं हो सकतीं। मन और इन्द्रियों में परस्पर प्रवर्तक-प्रावत्तक सम्बन्ध प्रतीत होता है अतः मेरे साथ धोखेबाजी में इन्द्रियों को इसी का हाथ है-इस दृष्टि से साहूकार भी नहीं कहा जा सकता।
सत्संगी-जबकि आपका मन न तो ठग है और न साहूकार, तब इसे आप कैसा समझते हैं।
मुमुक्षु-इसके लक्षण तो नारद के से अजीब देखने में आते हैं। क्योंकि यद्यपि अनिद्रिय विषयों में तो अकेला ; किन्तु पञ्च-विषय-वन में सभी इन्द्रियों से मिलकर ही यह सैर-सपाटा उडाता है । जबकि भोग के अवसर में वह प्रत्येक इन्द्रिय को अपने-अपने विषय-भोग में लगाकर और आप सभी से अलग रहकर यह नारद-योगी केवल तमाशा ही देखता रहता है । अतः इसकी माया कोई अनिर्वचनीय है । बस मन के सम्बन्ध में मुझे यही आश्चर्य लगता है।
[ १३५
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238