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फैल गया जिसे देखकर मैं आनन्द की गंगा में बह कर अपूर्व चैतन्यसागर में पहुँच कर तद्रूप हो गया। इस अपूर्वकरण के फल-स्वरूप मेरी चेतना, शरीर आदि समस्त पर-द्रव्य और पर-भावों से वैसी निवृत्त हो गई जैसी कि नारियल के अन्दर रहते हुए भी खोपड़ी से असंग सूखे गोले की हुआ करती है। वह निवृत्ति यावत् अन्तमुहूर्त तक अपार रही। इस अनिवृत्ति-करण में मुझे अपने स्वरूप की झाँकी भी हो गई। आत्मानन्द से छकी सी उस अद्भूत-दशा में मेरे आत्माराम ने भगवान से गद्गद् हो कर कहा 'हे दीनबन्धु ! तेरे प्रत्यक्ष दर्शन को पाकर यह पतित अब पावन हो गया। अहो आपकी कृपा से मंझधार में डूबती हुई मेरी नैया सहज ही में पार लग गई। ओहो अब तो मेरा निस्तार हो ही चुका क्योंकि मैंने तेरी कृपा से सिद्ध समान ही अपने को पाया। अब मेरे सभी दुख द्वन्द्व मिट गये और सभी मनो. वांच्छित सिद्ध हो गये। मुझे अपना शान्ति-स्वरूप-परम निधान हाथ लग गया अत: मैं कृत-कृत्य हो गया।
१३. कुछ क्षणों के पश्चात् जबकि मैंने देखा कि भगवान साकारस्वरूप मेरी आत्मा से अभिन्न हो गया ; और केवल मेरा आत्माराम ही अवशेष रह गया। तब मुझे सुदृढ़ प्रतीति हुई कि आत्मा और परमात्मा एक ही अभिन्न पदार्थ है क्योंकि तू मिटकर केवल मैं ही अवशेष रह गया। फिर मैं अपने आपको कहने लगा कि अहो मैं ! अब 'तू' के रूप में किसको नमस्कार करूँ ? क्योंकि तू ही मैं है । अत: मेरा मुझे ही नमस्कार हो। नमोस्तु-नमोस्तु !!! ___ अहो मेरा आत्माराम तू धन्य-धन्य है। क्योंकि तुझे अपने ही घट में उन बेहद के गुरु-परम गुरु से साक्षात् भेंट हो गई कि जिन परम गुरु ने दातार होकर सेवा के फलस्वरूप अपना असीम सहजात्म स्वरूप को ही दान में देकर तुझे अपने तुल्य बना दिया। अनादिय सफर में तेरे लिए यह भेंट नई है क्योंकि इसी से तेरे जोवन का नव-निर्माण
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