Book Title: Anandghan Chovisi
Author(s): Sahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 167
________________ का अवलम्बन और तदनुरूप स्वरूपानुसन्धान पूर्वक आसन और मुद्रा के साथ स्वाध्याय तथा ध्यान श्रेणि बतायी गई है । स्वाध्यायात्मक प्रत्येक सूत्र सम्पदा एवं ध्यानात्मक प्रत्येक कायोत्सर्ग में मन और पवन को एक साथ रखने का विधान है, अतएव प्रत्येक कायोत्सर्ग में अमुक श्वासोच्छ्वास की परिगणना सूचित की जाती है, जो अनाहतध्वनि के अनुभव की कुँजी है । श्वासोच्छ्वास और तैजस शरीर के घर्षण से यह अन्तर्नाद सदोदित गुंजता ही रहता है, पर लक्ष की बहिर्मुखता के कारण सुनने में नहीं आता । सामान्यतया यह ध्वनि शंख ध्वनि वत् 'ओम्' कार के उच्चारण- रूप ध्वनित होती है अतः इसे ॐकार ध्वनि भी कहते हैं । और इसे ही आठ प्रतिहार्यो में दिव्य- ध्वनि कहते हैं । हारमोनियम और तान्त्रिक आदि वाद्यों में प्रथम यही ध्वनि व्यक्त होती है । मन - पवन की एकता से, बिना बजाये स्वतः बजने वाली इस अनाहत - दुन्दुभि द्वारा उच्चार्यमाण-सूत्र, गद्य-पद्यात्मक संगीत - रूप में परिणत होकर मन को अन्तर्मुख मुग्ध कर देते हैं, फलतः अन्तर्लक्ष सुगम हो जाता है । फिर अन्तर्लक्ष से क्रमशः साकार - दर्शन, सुधारस आदि का स्वतः अनुभव होता है, जो मन स्थिरता के उत्कृष्ट सहारे हैं । स्थिर मन जब आत्म- प्रदेश में पहुँचता है तब ये नाद आदि का लय हो जाता है - ऐसा सुदृढ़ अनुभव है । बड़े खेद की बात है कि वर्तमान में गुरुगम के अभाव वश दिगम्बर और श्वेताम्बर उभय सम्प्रदायों में कोरी किया जड़ता फैली हुई है, इसीलिये त्याग और वैराग्य आत्मानुभूति के कारण न बन कर अभिमान के कारण बनते हैं । फलतः धार्मिक-झगड़ों में साधक स्वयं उलझ कर दूसरों को भी उलझा देते हैं, यावत् अनुयायी वर्ग समेत ये लोग कल्याण-मार्ग से लाखों योजन दूर निकल चुके हैं । इसीलिये वे वीतराग धर्म की दुहाई देकर इतना राग-द्व ेष फैला रहे हैं । ४. भैया ! अच्छा हुआ कि तुम अबतक किसी भी सम्प्रदाय १०४ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org


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