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इच्छा-निरोध-रूप-चैतन्य-आतप में ज्ञानावरण आदि समस्त कर्म - समूह को भस्मीभूत करने की अथाह शक्ति है, पर जब तक वह शक्ति मन-इन्द्रियों के द्वारा बाह्य इन्द्रिय-विषयों में बिखरी हुई है तब तक कार्यक्षम नहीं है, परन्तु सद्गुरु-कृपा से मन इन्द्रियों के जय पूर्वक गुप्ति-गढ़ पर चढ़कर ज्योंहि उसे अन्तर्मुख अनाहत चक्र पर केन्द्रित-संवर करते हैं, त्योंहि उसमें से ज्ञानाग्नि सुलग कर वह हृदयस्थ आवरण-पट को भस्मीभूत करके बिखेर देती है, फलतः अन्तर्दृष्टि खुल जाती है। इसी दृष्टि से हृदय-प्रदेश में जब देखो तब त्रिजग स्वामी परम कृपालु श्री जिनेन्द्रदेव साक्षात् धर्म-धन-मूर्ति के रूप में नजर आते हैं। इन हृदयस्थ प्रभु-चरणों में आत्म समर्पण करके प्रभु-छवि को एक टक देखते-देखते ज्यों-ज्यों स्थिरता बढ़ती है त्यों-त्यों चैतन्य प्रकाश भी बढ़ता हुआ यावत् सूर्य-चन्द्र के प्रकाश से भी अधिक हो जाता है। उसी प्रकाश द्वारा गुप्ति-गढ़ के षट्-चक्र आदि कोठों के व्यूह से कर्म-शत्रु के चक्र-व्यूह का सर्वांग भेदन किया जाता है जिससे चैतन्य प्रकाश भी सर्वांग फैल जाता है। उस सर्वांग प्रकाश में भगवान के साकार-स्वरूप का जब लय हो जाता है तब आत्मा और परमात्मा का अभेद-अनुभव-रूप आत्म साक्षात्कार होता है। फिर क्रमश: आत्म प्रतीति, आत्म-लक्ष और आत्म-स्थिरता धारा को अखण्ड सिद्ध करके साधक-आत्मा, साध्य-परमात्म-पद पर आरूढ़ होकर त्रिजगपूज्य बनता है-यह सब धर्म-धन की प्रत्यक्ष साकार-मूर्ति श्री जिनेन्द्र देव की महिमा है, जो महिमा मेरुवत् स्थायी, अडोल और अचिन्त्य है। साकार उपासना का यही रहस्य है। इसके बिना सीधे निराकारउपासना में प्रवेश करना आसान नहीं है। इन दोनों उपासना-पद्धति का रहस्य निम्न : कार है :
जैसे क्षुधा रोग शान्त करने के लिए सूखे चावल पात्र में छोड़े बिना ही अग्नि पर सिझाते हैं तो वे तत्काल कोयले होकर खाने योग्य भी नहीं रहते ; पर यदि उन्हें किसी पात्र में छोड़, जल मिलाकर १०२]
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