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सन्त-जन उन्हें अपना उपास्य देव बनाते हैं, पर वे परमगुरु' कर्तृत्वअभिमान-शून्य, गुरु-शिष्य के व्यवहार से उदासीन और नाम रूप से परे हैं। फिर भी कमाल है ! कि जिन नाम-रूप से भजते, उस नामरूप में ही उनके दर्शन होते हैं, यावत् उनको भजने वाला उन जैसा ही बन जाता है।
यदि तुम्हें धर्म का साक्षात्कार करना है तो निष्काम हृदय से एकमात्र इन्हीं धर्म-जिनेश्वर को एक निष्ठा से भजो और सब झंझट तजो। अपने पास जो भी प्रेमधन है, वह सारा एकत्रित करके इन्हीं के चरणों में चढ़ा दो कि जिसे तुम कामराग, स्नेहराग और दृष्टि-रागरूप त्रिवेणी-प्रवाह से व्यर्थ ही बाहर बहा रहे हो। अपने मन-मन्दिर में अब तो बस, एक इन्हीं धर्म-मूर्ति को हो प्रियतम के रूप में प्रतिष्ठित कर लो और 'तन-मन एक ही रंग' से चुपचाप इन्हीं की भक्ति किया करो। यदि चुप न रहा जाय तो वाणी को इन्हीं के गुणग्राम में लगा दो और जिन-चरणों के प्रति बहते हुये प्रेम-प्रवाह को सर्वथा अभंग रखो। किसी भी देश, काल और परिस्थिति से उस प्रेम-प्रवाह के प्रवहन में भंग न पड़ जाय-इसके लिए पूर्णतः सावधान रहो। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि इन्हीं की भक्ति से तुम्हें अवश्य धम का साक्षात्कार होगा, क्योंकि मुझे भी जो कुछ अनुभव हुआ और हो रहा हैवह सब केवल इन्हीं की कृपा का प्रसाद है, अतः प्रियतम के रूप में इन्हें छोड़कर और किसी भी रागी-द्वेषो देव को मैं अपने मन मन्दिर में फटकने तक नहीं देता। अजी ! मैं तो क्या ? हमारे सारे हो स्याद्वादी-खानदान का एक यही गौरव-भरा स्वभाव है कि आराध्य के रूप में वीतराग देव के सिवाय दूसरे किसी को भी अपने हृदय में स्थान न देना। हाँ सतीवत् प्रियतम के सम्बन्धियों के नाते सभी से मिलजुल कर रहने में एवं उनके साथ उचित शिष्टाचार रखने में हमें कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि शिष्टाचार का त्याग ही मानवता का त्याग है।
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