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धर्म का मर्म :
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एक स्वरूप - जिज्ञासु वास्तविक धर्म की खोज में यत्र-तत्र भटकता हुआ सन्त आनन्दघनजी के सानिध्य में उपस्थित हुआ और बाबा की अवधूत आत्मदशा का दर्शन पाकर बहुत प्रभावित हुआ । उसे विश्वास हो गया कि मेरे दिल की दुविधा यहीं मिट सकेगी । अतः बड़ी श्रद्धा से विनयान्वित होकर उसने बाबाजी से निवेदन किया कि:
१५. श्री धर्मनाथ - स्तवनम्
भगवन् ! मैं आत्म-कल्याण की कामना वश सुदीर्घ काल से धर्म की खोज में सर्वत्र भटक रहा हूँ । मैंने बहुत से धर्म-सम्प्रदायों का परिचय किया, अनेक गुरुजनों से मिला और उनके उपदेश और सिद्धान्त - साहित्य पर भी यथाशक्ति मनन किया पर अबतक मुझे कहीं से भी धार्मिक सन्तोष नहीं मिला । भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की भिन्नभिन्न धानिक प्ररूपणा सुनकर मैं तो हैरान हो गया कि 'विश्व में सच्चा धर्म और सच्चा - देव कौनसा ? किस ढंग से प्रभु-भक्ति करने पर धर्म का साक्षात्कार हो सकता है ? कि जिस धर्म से हम कर्म - बन्धन से शीघ्र छूट कर भव-पार हो जायँ ।
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१. सन्त आनन्दघन — भैया ! धर्म कोई बाजारू - चीज थोड़ी है ! कि जो बाहर ढूंढने पर कहीं से मिल जाय । वह तो आत्मीय चैतन्य - खजाने का अनुपम परम धन है, कि जिसकी अनुभूति, मोह-क्षोभ रहित केवल चैतन्य के वीतराग शुद्ध परिणमन-स्वरूप आत्मदर्शन, आत्मज्ञान और आत्मस्थिरता द्वारा ही सम्भव है । मोह-क्षोभ को जीतने पर ही उसकी उपलब्धि हो सकती है अतः उसे 'जिन' विशेषण लगाया जाता है । दूसरे चाहे लाख प्रयत्न कर लें, पर मोह - क्षोभ को जीतकर जिन हुये बिना धर्म का स्वरूप हाथ नहीं आता । जिन्होंने जिन होकर अपनी आत्मा में धर्म का साक्षात्कार कर लिया, उन्होंने सम्पूर्ण आत्मऐश्वर्य पा लिया । उस सहजात्म-स्वरूप दशा में 'जिनेश्वर' संज्ञा देकर
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