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सभी क्रियाओ का फल केवल एक मोक्ष है जबकि आत्मलक्ष शून्य उन्हीं क्रियाओं का फल पुण्य-पाप की अनेक धाराओं में विभक्त होकर चारों गतियों में परिभ्रमण करने वाला अनेक अन्त अर्थात् अनेक जन्म-मृत्यु मूलक होता है। __जो एक दूसरे गच्छवासियों को मिथ्यात्वी कह कर केवल बाह्य क्रियाओं के दुराग्रह वश परस्पर झगड़ते हैं वे कोरे क्रिया जड़ और व्यवहार से भी दृष्टि-अन्ध हैं क्योंकि उनके पास अनेकान्त-लोचन अर्थात् स्याद्वाद-दृष्टि ही नहीं है, इसीलिए एक स्वर में एकान्तिक राग आलापते हैं कि हम ही विविध क्रियायें करके सम्यक् चारित्र की आराधना करते हैं-दूसरे नहीं, पर अनेक क्रियाओं के साथ ही जो अनेक शुभाशुभ भाव करते हैं उसके फ स्वरूप अनेक अन्त-अनेक जन्म-मृत्यु करने पड़ेंगे-ये तो उनकी नजर में ही नहीं आते--यही इस कलियुग की महिमा है। इसी तरह भूतकाल में भी अनेकान्त दृष्टि को ठकराकर अनेक संसार-फलों को उत्पन्न कराने वाली लक्ष्य शून्य अनेक क्रियाओं द्वारा अपने ललाट के लेख तैयार करके बेचारे अनेक क्रिया जड़-चारों गतियों में रुले हैं और भविष्य में भी रुळते रहेंगे।
३. वास्तव में गच्छ का स्वरूप है-एकसी शिक्षा और दीक्षा विधि से मोक्ष मार्ग में गमन करने वाले अनेक व्यक्तिओं का समूह । पात्रता-भेद के कारण अनेक गच्छ अनिवार्य हैं, जैसे कि श्री महावीर प्रभ के ग्यारह गणधरों के नव गच्छ। प्रत्येक गच्छवासी की सभ्यता है-विचार भेद होने पर भी लक्ष्य भेद का न होना, जैसा कि उक्त नव गच्छों में वाचना-भेद था, किन्तु लक्ष्य भेद नहीं था ; बाह्य आचार भेद होने पर भी प्रीति भेद का न होना, जैसा कि उक्त गणधर परम्परा में बहुत से शिष्य वस्त्र रहित दिगम्बर रहते थे ( आचारांग-८-७-२) तो कोई कटि वस्त्र-कोपीन मात्र भी रखते थे ( आचारांग ८-७-१) एवं कितनेक "एगे वत्थे एगे पाए' अर्थात् एक वस्त्र और एक पात्र
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