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सन्त आनन्दधनजी-प्यारे! आध्यात्मिकता चार तरह की होती है
(१) नाम आध्यात्मिकता-आध्यात्मिक-साधना और आध्या. त्मिक-साधन विहीन होने पर भी अपने आप को 'अध्यात्मी' मान लेना।
(२) स्थापना-आध्यात्मिकता-मन्दिर, मूर्ति, सत्संग-भवन आदि का निर्माण और आध्यात्मिक साहित्य का संग्रह आदि आध्यात्मिक साधन-मात्र से ही अपनी आध्यात्मिकता की इतिश्री समझना, किन्तु नियमित साधना में प्रवेश तक न करना।
(३) द्रव्य-आध्यात्मिकता-सत्संग, भक्ति, दर्शन, पूजन, स्वाध्याय, सामायिक, प्रतिक्रमण, व्रत, तप, त्याग आदि सदनुष्ठान तो करना, पर चेतना को अन्तमुख आत्मस्थ न रखना। इतने पर भी अपने को सच्चे अध्यात्मी-मुमुक्षु, श्रावक किंवा साधु-योगी मान लेना।
(४) भाव आध्यात्मिकता–इष्टानिष्ट कल्पना रहित शुद्ध चेतना के अन्तर्मुखी प्रवाह से केवल चैतन्य के स्पर्श पूर्वक क्रमशः आत्म-प्रतीति, आत्मलक्ष और आत्मानुभूति धारा को प्रकटाने वाले सद्गुरुप्रदत्त सदनुष्ठान में दत्त चित्त रहना एवं गुणविकास होने पर भी अहम् का न स्फुरना।।
आध्यात्मिकता के इन चार भेदों में से प्रथम के तीन भेद जो कि आपके चिर-परिचित हैं, उनसे अब सम्बन्ध-विच्छेद कर दो, क्योंकि वे अकार्यकारी हैं और भाव आध्यात्मिकता कि जिससे आत्म-प्रतीति आत्मज्ञान एवं आत्मसमाधि आदि आत्म गुणों के विकास पूर्वक आत्मारामता सधती है, उसे अपना लो। कमर कस कर उसे प्राप्त, करने की लौ लगादो। इसी से हो तुम्हारे दिल-दीपक की भी लौ लग जायगी।
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