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५. नाम स्थापना और द्रव्य-रूप त्रिविध-अध्यात्म तो कोरा शब्दअध्यात्म है, अर्थ अध्यात्म नहीं, क्योंकि अर्थ-अध्यात्म केवल भाव अध्यात्म-स्वरूप है और यही मुमुक्षु के लिए प्रयोजन-रूप है-इस रहस्य को जबसे सुना तब से ही निर्विकल्पता ग्रहण करके चित्त को अन्तर्मुख चैतन्याकार स्थिर कर दो और सचमुच आध्यात्मी बनो, क्योंकि शब्दअध्यात्म से कार्य सिद्धि हो-या-न हो ? कुछ कहा नहीं जा सकता। यदि भाव अध्यात्मी सद्गुरु का निश्चय और आश्रय हो तब तो वह अर्थ-अध्यात्म का कारण बन सकता है, अन्यथा उससे आत्म-वधुंना ही होती है। अतः कोरे शब्द अध्यात्मी रह कर व्यर्थ में कालक्षेप करके आत्म-वचना-रूप नुकसान मत उठावो। अधिक क्या कहूँ ?
६. प्रचारक-भगवन् ! सच्चे आध्यात्म निष्ठ सद्गुरु को हम कैसे पहचान सकें?
सन्त आनन्दधनजी-उनके वाणी और वर्तन से। जो सचमुच आध्यात्म निष्ठ होते हैं उनका मन सतत आत्म-विचार द्वारा अन्तर्मुख आत्माकार ही बना रहता है—अतएव उनकी दृष्टि प्रायः स्थिर रहती है। उनकी वाणी अपूर्व पूर्वापर सुसम्बद्ध, स्व-पर वस्तु की यथास्थित वस्तु-स्थिति प्रकाशक, समन्वयात्मक, आत्मार्थ प्रेरक और अविसंवादिनी होती है, एवं उनका शरीर भी अचपल रहता है । दरअसल पुष्ट ज्ञानानन्द को प्रदान करने वाले जिनेन्द्र देव के वे ही सच्चे अनुयायी हैं कि जो मोक्ष-मार्ग में एकनिष्ठ हैं, अतः मुमुक्षुओं को एक निष्ठा से वे ही उपासनीय हैं। शेष सभी तो भेषधारी समझकर दूर से ही नमस्करणीय हैं । सुज्ञेषु किं बहुना ?
"मुमुक्षुओं के नेत्र ही महात्मा को पहचान लेते हैं।"
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