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१४. श्री अनन्त - जिन स्तवनम्
चारित्र का पारमार्थिक रहस्य :
प्रचारक – भगवन् ! जिनवाणी में जहाँ सम्यग्दर्शन- -ज्ञान-चारित्र की एकता को मोक्ष मार्ग बताया, वहाँ सम्यक्त्व पूर्वक देखने, जानने और आचरण द्वारा ही भव बन्धन से आत्मा का मोक्ष बताया, अतः सम्यवत्व ही मोक्ष - मार्ग की रेखा है - ऐसा सिद्ध हुआ । चित्त शुद्धि के बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती और चित्त शुद्धि के लिए प्रधानतः प्रभु भक्ति करना अनिवार्य है - इस विषय में आपने जो रहस्य पूर्ण दिग्दर्शन कराया वह कितना हृदयंगम और अद्भुत है । यद्यपि प्रचारक के नाते जैन - अजैन अनेक सम्प्रदायों के बहुत से धर्माचार्यों का इस दास को व्यापक परिचय है, पर ऐसा हृदयंगम और अद्भुत निरूपण आज तक हमने कहीं से कभी भी नहीं सुना था ।
वर्तमान में जैनों की दिगम्बर और श्वेताम्बर उभय श्रेणियों की तत्व निरूपण शैली और साधना प्रणाली कितनी विचित्र और अर्थ - शून्य है - यह आपसे छिपी हुई नहीं है । सभी गच्छवासी धर्माचार्यों के पास से सम्यक्त्व तो केवल बाजारू सब्जी के मोल, अपने सिवाय अन्य किसी को भी सच्चे गुरु न मानने के तोल मुँहमाँगा मिलता है । और चारित्र भी इतना सस्ता है कि पीछी - कमण्डलु किंवा ओघामुफ्ती के धारण पूर्वक वस्त्ररहित किंवा परिमित वस्त्र सहित वेशभूषा बना ली कि मोक्ष मार्ग के सच्चे साधु के रूप में छट्ट - सातवें गुणस्थान प्रधान आत्मदशा का प्रमाण-पत्र मिल ही जाता है । प्रभो ! चारित्र का बाजार क्या इतना सस्ता हो सकता है ?
१, सन्त आनन्दघनजी - सुज्ञ ! चौदहवें तीर्थङ्कर श्री अनन्तनाथ प्रभु जिस चारित्र मार्ग की अप्रमत्त धारा पर चल कर क्रमश: चौदह गुणस्थानों को पार करके सिद्धालय में पहुँचे, उस चारित्र का मुख्य
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