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श्री अनन्त-जिन-स्तवन ( राग-रामगिरी कड़खो )
धार तरवार नी सोहिली दोहिली, चउदमा जिन तणी चरण सेवा । घार परि नाचता देखि बाजीगरा, सेदना-धार परि रहै न देवा ॥धार० ॥१॥
एक कहै सेविये विविध किरिया करी, कल अनेकांत लोचन न देखे । फल अनेकांत किरिया करी बापड़ा, रडबडै चार गतिमांहि लेखै॥धार ०॥२॥
गच्छ ना भेद बहु नयण निहालतां, तत्त्वनी बात करतां न लाजै । उदरभरणादिनिजकाज करतांथका,मोहनडिया कलिकालराजै॥धार०॥३॥
वचन निरपेख व्यवहार झूठी कह्यो, वचन सापेख व्यवहार साँचो। वचन निरपेख व्यवहार संसार फल, सांभली आदरी कांइ राचो ॥धार०॥४॥
देव गुरु धर्म नी शुद्धि कहो किम रहै, किम रहे शुद्ध श्रद्धान आणो। शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरियाकरी,छारिपरि लीपणोतेहजाणो॥धार०॥५॥
पाप नहिं कोइ उत्सूत्र भाषण जिस्यो, धर्म नहिं कोइ जग सूत्र सरिखो। सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करै,तेहनो शुद्ध चारित्र परिखो॥धार०॥६॥
एह उपदेश नं सार संक्षेप थी, जे नरा चित्तमां नित्य ध्यावै । तेनरा दिव्य बहुकालसुखअनुभवी, नियत आनन्दघन' राजपावै ॥धार०॥७॥
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