________________
श्री वासुपूज्य जिन स्तवन ( राग-गौडी-तुंगिया गिर सिखर सोहै-ए देशी )
वासुपूज्य जिन त्रिभुवन स्वामी, घणनामी परणामी रे। निराकार साकार सचेतन, करम करम फल कामी रे ॥ वासु० ॥१॥
निराकार अभेद संग्राहक, भेद ग्राहक साकारो रे। दर्शन ज्ञान दु भेद चेतना, वस्तु ग्रहण व्यापारो रे ॥ वासु० ॥२॥
करता परिणामी परिणामो, करम जे जीवै करिये रे। एक अनेक रूप नयवादे, नियते नय अनुसरिये रे ॥ वासु० ॥३॥
सुख दुख रूप करम फल जाणो, निश्चय एक आनंदो रे। चेतनता परिणाम न चूकै, चेतन कहे जिनचंदो रे॥ वासु० ॥४॥
परिणामी चेतन परिणामो, ज्ञान करम फल भावी रे। ज्ञान करम फल चेतन कहिये, लीज्यो तेह मनावी रे ॥ वासु० ॥५॥
आतमज्ञानी श्रमण कहावै, बीजा तो द्रालगी रे। वस्तु-गतै जे वस्तु प्रकास, आनन्दघन' मत संगी रे ॥ वासु० ॥६॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org