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है, राग, द्वेष आदि की मिलावट रहित निखालिस जानना ही केवल जानना है, और केवल जानने की क्रिया-ज्ञप्ति-क्रिया करने पर उसके फल-स्वरूप निराकुल आनन्द का अनुभव होना स्वाभाविक है, क्योंकि आकुलता तो राग-द्वेष की मिलावट पूर्वक जानने-रूप अज्ञान-कर्म का हो फल है-ज्ञान कर्म का नहीं, अतः ज्ञानकर्म तथा ज्ञानकर्म के फलस्वरूप आनन्द की ही सतत अनुभूति करनेवाला चेतन ही चेतन कहलाता है। शेष सभी मोहनिद्राधीन स्व-स्वरूप में असावधान नाम-मात्र के चेतन तो जड़वत् है। ___प्यारे । प्रमाद में क्यों कालक्षेप कर रहे हो ? जागो ! जागो ! और मोहनिद्रा से मुक्त होकर अपनी चेतना को किसी तरह समझाबुझा कर अपने चेतन-स्वरूप का साक्षात्कार करो। व्यर्थ-चिन्तन, व्यर्थ-बकवाद और व्यर्थ-चेष्टा में अपनी शक्ति का दुर्व्यय मत करो। क्योंकि मृत्यु का आना अनियमत और अनिवार्य है, जबकि आत्मसाक्षात्कार किये बिना मृत्युरोग मिटने वाला नहीं है।
६. त्रिविध कर्म से भिन्न कारण-परमात्मा-रूप आत्मा को स्व-स्वरूप-रूप में समझ लेने मात्र से कोई आत्मज्ञानी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आत्मज्ञानी का मुख्य लक्षण आत्मसाक्षात्कार है कि जो दूज के चन्द्र-प्रकाशवत् अपने ही निरावरण चैतन्य-प्रकाश द्वारा होता है। जैसे दूज के चन्द्र-प्रकाश से चन्द्र का पूर्ग बिम्ब, उस पर का शेष आवरण-विभाग और प्रकाश क्षेत्र की मर्यादा में रहे हुये विश्व के सभी रूपी पदार्थ ज्यों-के-त्यों भिन्न-भिन्न रूप में चाहे मन्द ही सही किन्तु दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान-प्रकाश से सर्वांग आत्म-स्वरूप, उस पर का शेष आवरण विभाग और विश्व के सभी रूपी-अरूपी पदार्थ भिन्न-भिन्न रूप में चाहे मन्द ही सही किन्तु इन्द्रियों की मदद बिना ही दिखाई पड़ते हैं—इस न्याय से आत्मज्ञान ही केवलज्ञान का बीज है, क्योकि इसी के अवलम्बन से पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रवत् सम्पूर्ण केवलज्ञान-स्वरूप आत्मा का सम्पूर्ण आविर्भाव होता है।
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