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करके जड़-कार्माण-अणु, गस बन कर चतन्य प्रदेश में सतत फैलता हुआ कर्म बादल के रूप में सघन बनता रहेगा। जिससे दिल का दीया अर्थात् चेतन-सूर्य का ज्ञान-प्रकाश कर्म-कालिमा से सदैव दबा-सा रहेगा। फलतः शाता-अशाता के अन्तर-बाह्यान्तर अग्निदाह से झुलसता हुआ चेतन सुख-दुख का सतत अनुभव करता ही रहेगायह सैद्धान्तिक तथ्य है।
४. ये सुख-दुख तो खुद के शुभाशुभ-कल्पना-अपराध से उत्पन्न जड़-कर्म के ही फल हैं-ऐसा जान कर कर्म और कर्म-फल से उदासीन होकर यदि जीव व्यवहारनय को गौण करके निश्चयनय का प्रधानतः अनुसरण करता हुआ स्व-तत्त्व-ग्रहण में ही तल्लीन रहे, तो उसकी ज्ञान-चेतना स्वतः हो निर्विकल्प हो जाय । जिससे कार्माण-गैस बनना रुक जाय और ज्ञानाग्नि चेतन होकर पूर्व-संचित कर्म-बादलों को निःसत्त्व करके बिखेरती रहे। फलतः चेतन-सूर्य की अखण्ड अनन्त चेतन-ज्योति प्रत्यक्ष निरावरण होने-रूप दिल का दीया चेत जाय और चैतन्य-प्रदेश में सर्वत्र सहज ही में आनन्द की गंगा लहराने लग जाय ।
वास्तव में जिनेश्वर भगवान उसे ही चेतन कहते हैं कि जो प्रतीति, लक्ष और अनुभूति-धारा से अपने स्वरूपानुसन्धान को स्थायी वनाये रखे । अपने ही देखने जानने वाले ज्ञायक स्वभाव को सतत देखता-जानता हआ उसी में ही तन्मय रहे। चेतन और चेतना को अभिन्न रखे। इस कार्य में जरा सी भी क्षति न होने दे अर्थात् चेतना की रत्नत्रय-परिणाम धारा खण्डित न हो जाय जिसकी पूर्णतः सावधानी रखे, अतएव स्व-स्वरूप में सतत जागरूक रहे ।
५. स्वभावतः परिणमनशील चेतन ज्ञान स्वरूप है । जो स्वयं ज्ञानस्वरूप है, वह परिणमन द्वारा परिणाम में ज्ञान-कर्म के अतिरिक्त और कर ही क्या सकता ? क्योंकि केवल जानना ही जिसका स्वभाव
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