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दर्शन, पूजन और ध्यान करने पर क्रमशः सर्वांग कर्म-निर्जरा होकर सर्वांग आत्मशुद्धि और आत्मसिद्धि होती है। अतः इस कार्य में जिन प्रतिमा और उसका दर्शन-पूजन पुष्ट निमित्त कारण है। आत्मशुद्धिकार्य सम्पन्न होने के पूर्व ही इस निमित्त-कारण को खण्डित करने पर उपादान में उपादान.कारणता ही नहीं आती और उपादान कारण के बिना कार्य-सिद्धि कैसे होगी ? वास्तव में यह जिन-दर्शन-पूजन तो निजदर्शन-पूजन ही है, क्योंकि इसके अबलम्बन से निज आत्मा हो जिन आत्मा-परमात्मा बन जाता हैं अत: साधकीय जीवन में उसका आदर होना नितान्त आवश्यक है। इतने पर भी मूढ़तावश यदि कोई उसका उपहास करे तो उपहासक की निजी आत्म.शुद्धि का ही वह उपहास हो कर निज का अकल्याण होता है-जो भयंकर भूल है। इस भूल को सुधार कर आत्म-कल्याण के उपायों में लगा रहना ही मानव जीवन का कर्तव्य है।
अपने आत्म-कल्याण के उपायों में से यद्यपि सामायिक आदि छह आवश्यक कर्तव्य मुख्य हैं, पर चित्त शुद्धि के बिना केवल वाणी और शरीर से एक भी आवश्यक नहीं सधता । जबकि चित्त-शुद्धि तो स्वरूपनैष्ठिक आत्मानुभवी सद्गुरू से जिन-दशा का स्वरुप समझ कर सद्गुरू-आज्ञानुसार उसकी उपासना किये बिना हो नहीं सकती। और जिनदशा की उपासना तो जब तक मन स्थिर न हो जाय तब तक जिनमुद्रा के दर्शन, पूजन स्मरण आदि के बिना अन्य प्रकार से शक्य नहीं। तब भला ! जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं हुआ तब तक यह शुभ क्रिया क्यों उत्थापी जा रही है ? इसका उत्थापन करना तो मानो अनन्तानुबन्धी कषाय को उत्तेजन देकर अनन्त संसार ही बढ़ाना है और कुछ नहीं।
जैसे वर्षाकाल में जल कीच आदि को खूदते हुए षटकाय जीवों की विराधना होने पर भी मुनि-वन्दन के लिए जाने-आने और वन्दन
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