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ने इस अनुपम न्याय का प्रतिपादन करके जनता का बड़ा उपकार किया है। उनकी इस निष्कारण करुणा को हम हृदय से अभिनन्दन देते हैं।
अब हम इस वीतरागी-त्रिभंगी न्याय को इसके जन्मदाता वीतरागों पर ही घटा कर समझना चाहते हैं-जैसे कि सारे विश्व में त्राहि-त्राहि मच रही है, जिसे भगवान देखते भी हैं, और जानते भी हैं ; जबकि वे योगीश अत्यन्त दयालु हैं और उनमें ऐसी अद्भुत शक्ति भी है कि यदि वे चाहें तो विश्व के चराचर प्राणी-मात्र का दुःख मिटा सकते हैं क्योंकि उनकी वैसी त्रिभुवन-प्रभुता मशहूर है, फिर भी वे मौन क्यों ? इस वाक्य के अनुसार वीतराग भगवान में करुणा अर्थात् कोमलता (१) कथंचित है (२) कथंचित नहीं है अर्थात् कठोरता है, और फिर भी वे कोमल हैं या कठोर-ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वीतराग तो उदासीनता से ही अलंकृत हैं अतः वे (३) अवक्तव्य हैं।
३. यहाँ-दूसरों के दुखों को मिटाने की इच्छा-रूप करुणा, दूसरों को दुख देकर खुशी मनाने-रूप क्रूरता और इन दोनों लक्षणों से रहित विलक्षण उदासीनता-इन तीनों ही धर्मों का परस्पर अत्यन्त विरोध है, फिर भी वे एक ही स्थान में अविरोध-रुप से कैसे सिद्ध हो सकते हैं ? कृपया इनका परस्पर समन्वय करके दिखाइये ।
२. सन्त आनन्दघनजी-वीतराग भगवान में करुणा (१) कथंचित है और (२) कथंचित नहीं भी है, क्योंकि विश्व के चराचर समस्त प्राणियों के हित के लिये उन पर तो वह है, किन्तु राग, द्वेष और अज्ञान आदि कुकर्मों पर वह नहीं है। कुकर्मों को आत्मा से अलग करने के लिये तो भगवान में अत्यन्त क्रूरता ही है। इतने पर भी भगवान की पर-प्राणी-मात्र के प्रति न तो इष्ट बुद्धि है और न पर. जड़ कर्मों के प्रति अनिष्ट बुद्धि है, क्योंकि उन्हें पर चेतन-सृष्टि को
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