Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Shwetambar
Author(s): Sudharmaswami, Purnachandrasagar
Publisher: Jainanand Pustakalay

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatiren.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अप्पडिरूवे अहाउयो पुब्बि विसुद्धसद्धम्मे, केवलं बोहि बुझ्यिा ॥३॥ चरंगं दुल्लभं मच्चा, संजमं पडिवज्जिया। तवसा धुतकम्मसे,|| सिद्ध भवति सासए॥४॥ चाउरंगिजज्झयणं॥३॥ __ असंख्यं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणी एवं(णं) वियाणाहि जणे पमत्ते, कन्नू विहिंसा अजया गहिति॥ जे पावकम्मेहिं धणं मणुस्सा, समाययंती अमतिं गहायो पहाय ते पासपयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उति॥६॥ तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी एवं पया पिच्छ(च्च )इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्खो अस्थि॥७॥ संसारमावत्र परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेति कम्मी कम्मस्स ते तस्स 3 वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उति॥८॥ वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इममि लोए अदुवा पत्थो दीवपणढे व अणंतमोहे, नेयाउयं दमदमेव॥९॥ सुत्तेसु आवी पडिबुद्धजीवी, नो विस्ससे ||पंडियआसुम्पने घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खीव चरऽपमत्तो॥१२०॥चरे पयाई परिसंकमाणो, जंकिंचि पासं इह मनमाणो। लाभंतरे जीविय व्हइत्ता, पच्छा, परिण्णायमलावधंसी ॥१॥ छंदं णिरोहेण उवेति मुक्खं, आसे जहा सिक्खियवस्मधारी। पुवाई वासाई चरऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेति मुक्ख॥२॥स पुवमेवं णलभेज्ज पच्छा, एसोवमा सासयवाइयाणी विसीदति सिढिले आउयंमि, कालोवणीए सरीरस्स भेए॥३॥ खिप्पं न सकेइ विवेगमेडं, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामो समेच्च लोअं लाभं) समता महेसी, आयाणरक्खी चरमप्पमत्तो॥४॥ मुहं मुहं मोहगुणे जयंत, अणेगरूवा समणं चरंती फासा फुसंति असमंजसं च, ण तेसु HD श्रीउत्तराध्ययनसूत्रं ॥] पू. सागरजी म. संशोषित For Private And Personal

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