Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Shwetambar
Author(s): Sudharmaswami, Purnachandrasagar
Publisher: Jainanand Pustakalay
View full book text ________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobairt.org
Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir
|य पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणेऽवुत्ता, असुभत्थेसु य सव्वसो ॥६॥ एया पवयणमाया, जे सम्म आयरे मुणी। सो खिय्यं सव्वसंसारा,|| विष्यमुच्चइ पंडिए॥९४७॥ ति बेमि, पवयणमायज्झयणं २४॥
माहणकुलसंभूओ, आसी विथ्यो महायसो। जायाई जमजन्नमि, जयघोसत्ति नामओ॥८॥ इंदियग्गामनिगाही, मग्गगामी महामुणी। गामाणुगामं रीयंते, पत्तो वाणारसिं पुरि॥९॥ वाणारसीइ बहिया, उजाणंमि मणोरमे। फासुएसिजसंथारे, तत्थ वासमुवागए॥९५०॥ अह तेणेव कालेणं, पुरीए तत्थ माहणे। विजयधोसत्ति नामेणं, जन जयइ वेयवी॥१॥ अह से तत्थ अणगारे, मासक्खमणपारणे विजयघोसस्स जन्नंमि, भिक्खभट्टा(स्सऽट्ठा) उवहिए॥२॥समुवट्ठियं तहिं संतं, जायगो पडिसेहए।न हु दाहामि ते भिक्खं, भिक्खू! जायाहि अन्नओ॥३॥जे य वेयविऊ विष्या, जन्नमट्ठा य जे दिया। जोइसंगविऊ जे य, जे य धम्माण पार॥॥४॥ जे समत्था समुद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव यो तेसिमन्नमिणं देयं, भो भिक्खू! सव्वकाभियं॥५॥ सो तत्थ एव पडिसिद्धो, जायगेण महामुणी। नवि रुट्टो नवि तुट्ठो, उत्तमढगवेसओ॥६॥ नऽण्णटुं पाणहे वा, नवि निव्वाहणाय वा। तेसिं विमुक्खणठाए, इमं वयणमब्बवी ॥७॥ नवि जाणसि वेयमुह, नवि जन्नाण जं मुहं। नक्खत्ताणं मुहं जंच, जं च धम्माण वा मुहं ॥८॥ जे समत्था०|| न ते तुमं विजाणासि, अह जाणासि तो भण॥९॥ तस्सऽक्खेवपमुक्खं च, अचयंतो तहिं दिओ। सपरिसो पंजलीहोउं, पुच्छई || तं महामुणी॥९६०॥ वेयाणं च मुहं बूहि, बूहि जनाण जं मुहं। नक्खत्ताण मुहं बूहि, बूहि धम्माण वा मुहं ॥१॥ जे समत्था०॥ ॥ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रं ॥
पू. सागरजी म. संशोधित
For Private And Personal
Loading... Page Navigation 1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126