Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Shwetambar
Author(s): Sudharmaswami, Purnachandrasagar
Publisher: Jainanand Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 98
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अणगारगुणेहिं च, पगप्पंमि तहेव यो जे भिक्खू० ॥२॥ पावसुयप्पसंगेसु, मोहठ्ठाणेसु चेव य । जे भिक्खू० ॥३॥ सिद्धाइगुण जोगेसु, तित्तीसायणासु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥४॥ इइ एएसु जे भिक्खू, ठाणेसु जयई सया । खिप्पं से सव्वसंसारा विध्यमुच्चइ पंडिए ॥११५५॥ त्ति बेमि, चरणविहिजं ३१॥ अच्चंतकालस्स समूलयस्स, सव्वस्स दुक्खस्स 3 जो ५(३) मोक्खो । तं भासओ में पडिपुनचिता!, सुणेह एगग्गहियं |हियत्थं ॥६॥णाणस्स सव्व( च्च )स्स पगासणाए, अनाणमोहस्स विवजणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसुक्खं समुवेइ मोक्खं ॥७॥ तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवजणा बालजणस्स दूरा । सझायएगंतनिसे( निवेस)वणा य, सुत्तत्थसंचिंतणया धिई य ॥८॥ आहारमिच्छे भियमेसणिज, सहायमिच्छे निउत्थबुद्धिं । नियमिच्छेज्ज विवेगजोगं, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥९॥ न वा लभिज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एगोवि पावाई विवजयंतो (अणायरंतो), विहरेज कामेसु असजमाणो ॥११६०॥ जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागष्यभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हं, मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥१॥ रागो य दोसोविय कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्यभवं व्यंति । कम्मं च जाईभरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईभरणं व्यंति ॥२॥ दुक्खं हयं जस्सन होइ मोहो मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा । तण्हा हया जस्सन होइ लोभी, लाभा हआ जस्स न किंचणाई ॥३॥रागं च दोसंच तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समूलजालं। जे जे उवाया पडिवजियव्वा, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुस्विं ॥ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रं ॥ | ८८ पू. सागरजी म. संशोधित For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126