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क्या यह ग्रंथकार की स्वतंत्र कृति है ? यद्यपि इस सूत्र की रचना शय्यंभव ने बिलकुल स्वतंत्र रूपसे की हो ऐसा मालूम नहीं होता क्योंकि यदि यह उनको एक स्वतंत्र कृत होती तो एक ही बात पुन: पुन: इसमें न आने पाती परन्तु इसमें अनेक जगह एक हो बात एक ही शब्दको ही पुनः २ दुहराई गई है इससे तो यही मालूम होता है कि मानों कोई गुरु अपने प्रियजनको सरल एवं सुन्दर शब्दमें ही किसी गूढ वातको पुनः जोर देकर समझा रहा है और शिष्य मी बडे भोले भावसे उनकी शिक्षाओं का दुहराता जाता है। (देखो अध्याय ४ था) चौथे अध्याय के प्रवेशमें शय्यंभव आचार्य का अपने प्रिय शिष्य मनक को उद्देश्य (लक्ष्य) करके बोलने का निर्देश भी किया गया है। इन सब कारणों से यही सिद्ध होता है कि शय्यमव आचार्य ने इस ग्रंथ का संपादन अपने शिष्य मनक के लिये किया हो।
यह ग्रंथ उनकी कोई स्वतंत्र कृति नहीं ह किन्तु भिन्न २ आगमों में से उत्तमोत्तम अंश संग्रहीत कर इसे एक स्वतंत्र ग्रंथ का रूप दे दिया गया है । यह बात निम्नलिखित प्रमाणों से स्वयंसिद्ध हो जाती है:
प्रमाण
प्रथम अध्ययन उरग गिरि जलन सागर
नहतल तरुगण समो य जो होई। . भ्रमर मिय धरणि जल रूह रवि पवण समो अ सो समणो॥
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