Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 178
________________ दशवैकालिक सूत्र टिप्पणी- सहिष्णुता, निलभता, कोमलता, निरभिमानिता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य, त्याग तथा तप ये १० यतिधर्म कहलाते हैं। साधुका कर्तव्य है कि जब जब इनमें से किसी भी धर्मकी कसौटी का समय आवे तत्र २ उसमें सतत अडोल रहे । ये दश धर्म ही सच्चे श्रमधर्म हैं और इन्हीं धर्मों के द्वारा हो परमार्थ (मोक्ष) को सिद्धि होती है । [ ४४ ] साधकको इस लोक तथा परलोक इन दोनों में कल्याणकारी, सद्गति देनेवाले बहुश्रुत ज्ञानी पुरुषकी उपासना करनी चाहिये और उसके सत्संग से अपनी शंकाओंका समाधान करके यथार्थ अर्थका निश्चय करना चाहिये । .. १३४ टिप्पणी- - इस लोकमें शानदान मिलने से अपना हित होता है और उस ज्ञानके प्रभावसे चरित्र उत्तम बनता है इसीलिये गुरुको इस लोक तथा परलोक दोनोंका हितकारी बताया है क्योंकि ऐसे ज्ञानी पुरुषके निमित्त से ही अन्तःकरण की अशुध्धि निकल कर वह विशुध्धि होती है जिसके द्वारा श्रात्मसाक्षात्कार हो सकता है । आत्मसाक्षात्कार ही जीवोंका परम अभीष्ट लक्ष्य है और ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई दिव्यगति किंवा उत्तमगति भी उस साधकको आत्मविकास के मार्ग में अधिकाधिक अग्रसर करती है । [ ४ x ४६ ] ( ज्ञानी पुरुषके समीप किस तरह बैठना चाहिये तत्संबंधी कायविनयका विधान ) जितेन्द्रिय मुनि अपने हाथ, पैर, तथा शरीर को यथावस्थित (विनयपूर्वक) रखकर अपनी चपल इन्द्रियों को - वशमें रक्खे और गुरुके शरीर से चिपट कर, अथवा गुरुकी जांघ से जांघ श्रडाकर न बैठे किन्तु विनयपूर्वक मध्यम रीति से गुरुजनों पास बैठे 1 टिप्पणी- जिस आसनले बैठने से गुरुको अथवा इतरजनोंको विघ्नं होता हो अथवा अविनय होता हो उस श्रासन से कदापि न बैठे । [ ४७ ] . ( वचन - विनय का विधान ) संयमी साधक बिना पूछे उत्तर न दे, दूसरों के बोलने के बीचमें बात काटकर न बोले, पीठ पीछे

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