Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

View full book text
Previous | Next

Page 183
________________ श्राचारप्रणिधि १३१ टिप्पणी-उत्तम गुणोंमें, मूलगुणों तथा उत्तर गुणों दोनोंका समावेश होता है। इनका विस्तृत वर्णन छठे अध्यायमें किया है। [६२] ऐसा साधु संयम, योग, तप, तथा स्वाध्याययोगका सतत अधिष्ठान करता रहता है और वैसे ज्ञान, संयम तथा तपश्चर्या के प्रभावसे शस्त्रोंसे सजित सेनापतिकी तरह अपना तथा दूसरे का उद्धार करनेमें समर्थ होता है। टिप्पणी-जो साधु अपने दोपोंको दूर कर आत्महित साधन नहीं कर सका वह कभी भी लोकहित साधनेका दावा नहीं कर सकता क्योंकि जो अयं शुद्ध होगा वही तो दूसरोंको शुद्ध कर सकेगा और वहीं समर्थ पुरुष वस्तुतः जगतका हित भी कर सकता है। यहां पर सद्विधा, संयम तथा तपको शस्त्रोंसे, साधकको शरवीरसे, दोषों को शत्रुसे तथा सद्गुणों को अपनी सेनासे उपमा दी है। ऐसा शूरवीर पुरुष शत्रुओंको संहार कर अपना तथा सद्गुणोंका रक्षण कर सकता है। [१३] स्वाध्याय तथा सुध्यानमें रक्त, स्व तथा पर जीवोंका रक्षक, तपश्चर्या में लीन तथा निप्पापी साधकके पूर्वकालीन पापकर्म भी,. अग्निद्वारा चांदीके मैलकी तरह भस्म हो जाते हैं। [६] पूर्वकथित (क्षमा-दयादि) गुणोंका धारक, संकटोंको समभावपूर्वक सहन करनेवाला, श्रुत विद्याको धारण करनेवाला, जितेन्द्रिय, ममत्वभावसे रहित तथा अपरिग्रही साधु कर्मरूपी आवरणों से दूर होने पर निरभ्र नीलाकाशमें चन्द्रमा की तरह अपनी आत्मज्योतिसे जगमगा उठता है (अर्थात् कर्ममलसे रहित होकर श्रात्मस्वरूपमय हो जाता है। टिप्पणी-सतत उपयोगपूर्वक जागृत दशा, गृहस्थजीवन के योग्य कार्यों का सर्वथा त्याग, आसक्ति, मद, माया, छलकपट, लोभ, तथा कदाग्रहोंका त्याग ही त्याग हैं और इसी त्यागमय जीवनसे जीना यही त्यागी जीवनका परम

Loading...

Page Navigation
1 ... 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237