Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 232
________________ दशवैकालिक सूत्र भविष्य में दोष लगने की संभावना है किन्तु हो दोष लगता है। नैन दर्शन अनेकांत · 1 गई हुई हो तो अति है क्योंकि एकाकी विचरनेमें तो दुराचारी के संग से तो तत्क्षण दर्शन हैं । उसमें कथित वस्तुएं एकांत रूप से नहीं कहीं जाती । इसीतरह एकांत चर्या न तो नितांत खराब ही है और न नितांत उत्तम हो । वह जसी जिस दृष्टि से है उसका वर्णन ऊपर किया हो है । किंतु आधुनिक साधु-जगत में जो एकांत चर्या दिखाई दे रही है वह वैराग्य से नहीं किन्तु • स्वच्छंदवृत्तिजन्य मालुम होती है । और जहां स्वच्छंदता है वहां साधुता का नाश हो है । इसलिये आधुनिक परिस्थितियों को देखते हुए एकचर्या का प्रश्न बडाही चिन्तनीय एवं विवादग्रत्तसा गया है । स्वच्छंद को बढाने की रष्टिसे एकचर्या त्याज्य है किन्तु उसमें भी कोई अपवादरूप एकचर्या हो सकती है और भी वह आत्मसाधना के लिये की प्रशंसनीय भी है । सारांश यह है कि एकचर्या को · का माप उसके संयोगबलों एवं उसको परिस्थितियों के उपर निर्भर है । [ ११ ] ( चातुर्मास्य में ) जैनभिनुको एक स्थानमें अधिक से अधिक चार महीनों तक और अन्य ऋतुत्रों में एक मास तक ठहरने की श्राज्ञा है और जहां एक वार चौमासा किया हो वहां दो वर्षो का न्यवधान ( अन्तराल ) डालकर नीसरे वर्ष चौमासा किया जा सकता है और जहाँ एकमास तक निवास किया हो उससे दुगुना समय अन्य स्थलमें व्यतीत करने के बादही वहां फिर एक मास तक रहा जासकता है । जैनशास्त्रों की ऐसी आज्ञा है और संयमी साधु शास्त्रोक्त विधिके अनुसार ही चले । टिप्पणी- शारीरिक व्याधि अथवा " ऐसेही अन्य किसी अनिवार्य कारण - से इस प्रमाण (अवधि) में थोडा बहुत अपवाद भी हो सकता है। एक स्थानमें अधिक समय तक रहने से आसक्ति किंवा रागबंधन हो जाता है .और ये दोनों बातें संयम के लिये घातक हैं । इसलिये संयमकी रक्षा के ' ..लिये ही यह आशा दो गई है. यह ध्यानमें रखना चाहिये । + १६८ · . इष्टता अथवा अनिष्टता .

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