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दशवकालिक सूत्र
टिप्पणी-यहां अन तो दुर करे ना निर्देश इसलिये दिया है कि गृहत्य उस साधन को सजीव पानी से न धो डाले। पदि वह से साफ नरेगा तो उसको कष्ट पहुंचेगा जितना निमित्त वह साधु होगा। दूत्तरे सचित्त पानी से धुले हुए चमचे से ही हुई मिला तो लिये प्राय नो नहीं रहेगी।
दाता आहार पानी जहां से लाने उतको देखने से ताल्य यह है कि साधु यह देखें कि दाता न्ही स्वतः के लिये भावश्यक वस्तु न दान हो नहीं कर रहा ! दूसरे, आहार शुद्ध है किंवा नहीं, इतना भी इससे पना चल सकेगा। [७] मद्यमांसादि अभक्ष्यका सर्वया त्यागी शादर्श मिह निरभिमानी,
अपनी आत्मा पर पूर्ण काबू रखने के लिये बलिष्ठ भोजन - ग्रहण न करे पुनः २ कायोत्सर्ग (देहभान भूल जाने की
क्रिया) करे और स्वाध्यायमें दत्तचित्त रहे। [] भिक्षु. शयन, श्रासन, शय्या, निपद्या (त्वाध्यायके स्थान) तथा
आहारपानी आदि पर ममत्व रखकर, मैं जब यहां लौटकर आऊंगा .. तब ये वस्तुएं मुझे ही देना-किसी दूसरे को मत देना-इत्यादि
प्रकार की प्रतिज्ञा गृहस्थों से न करावे ओर न वह किसी गाम, कुल, नगर अथवा देश पर ममत्वभाव ही रखे।
टिप्पणी-ममत्व भाव रखना राधुजीवन के लिये सर्वधा याद है क्योंकि एक वल पर मनल होने से य वस्त पर से विशुद्ध प्रेन उड जाता है और उसले विरुद्ध स्वभावको वस्तुओं र देष हो जाता है। इस तरह एक ननत्व भाव रागदेष दोनों ने ही कारण है। इन दोनों का बुरा परिन आत्मा पर जरूर पड़ता है और उसके परिणाम बल्लुषित हुए दिना नरहने इससे साधक की साधना में व्हा भारी विप खडा होगा बहना तो चाहिये कि नुनिका सारा अचार हों भर मैं आ पड़ेगा क्योंकि साधुक्ता